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समवाय- ३/३
है । भरणी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है । दूसरी शर्करा पृथ्वी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है । तीसरी वालुका पृथ्वी में नारकियों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम कही गई है ।
कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है । असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है । असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है ।
सनत्कुमार- माहेन्द्रकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तीन सागरोपम कही गई है । जो देव आभंकर, प्रभंकर, आभंकर - प्रभंकर, चन्द्र, चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रश्रृंग, चन्दसृष्ट, चन्द्रकूट और चन्द्रोत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है । वे देव तीन अर्धमासों में ( डेढ़ मास में) आन-प्राण अर्थात् उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं । उन देवों को तीन हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीन भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ।
समवाय - ३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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समवाय-४
[४] चार कषाय कहे गये हैं- क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय, लोभकषाय । चार ध्यान हैं - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान । चार विकथाएं हैं । जैसे - स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, देशकथा । चार संज्ञाएं कही गई हैं । जैसे- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा । चार प्रकार का बन्ध कहा गया है । जैसे - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध, प्रदेशबन्ध । चार गव्यूति का एक योजन कहा गया है ।
अनुराधा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है । पूर्वाषाढा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है । उत्तराषाढा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है । तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति चार सागरोपम कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है । सौधर्म - ईशानकल्पों में कितने क देवों की स्थिति चार पल्योपम की है ।
सनत्कुमार - माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार सागरोपम है । इन कल्पों के जो देव कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टि- आवर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिश्रृंग, कृष्टिसृष्ट, कृष्टिकूट, और कृष्टि - उत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम कही गई है । देव चार अर्धमासों (दो मास ) में आन-प्राण या उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं । उन देवों के चार हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।