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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तीनों पूर्वाएं (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वा भाद्रपदा) मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा ।
[१६] अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग के लिए दश प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) उपस्थित रहते हैं । जैसे
[१७] मद्यांग, भृग, तूर्यांग, दीपांग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अननांग ।
[१८] इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की स्थिति दस पल्योपम की कही गई है । चौथी नरक पृथ्वी में में दस लाख नारकावास हैं । चौथी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति दस सागरोपम की होती है । पाँचवी पृथ्वी में किन्हीं-किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम कही गई है।
कितनेक असुरकुमार देवों जघन्यस्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है । असुरेन्द्रों को छोड़कर कितनेक शेष भवनवासी देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति दश पल्योपम कही गई है । बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है । कितनेक वानव्यन्तर देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है ।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति दश पल्योपम कही गई है । ब्रह्मलोक कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है । लान्तककल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति दश सागरोपम कही गई है । वहां जो देव घोष, सुघोष महाघोष नन्दिघोष, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, मंगलावर्त और ब्रह्म-लोकावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है । वे देव दश अर्धमासों (पांच मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं, उन देवों के दश हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो दश भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय-१८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
(समवाय-११) [१९] हे आयुष्मन् श्रमणो ! उपासकों श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाए कही गई हैं । जैसे- दर्शन श्रावक १, कृतव्रतकर्मा २, सामायिककृत २, पौषधोपवास-निरत ४, दिवा ब्रह्मचारी, रात्रि-परिमाणकृत ५, दिवा ब्रह्मचारी भी, रात्रि-ब्रह्मचारी भी, अस्नायी, विकट-भोजी
और मौलिकृत ६, सचित्तपरिज्ञात ७, आरम्भपरिज्ञात ८, प्रेष्य-परिज्ञात ९, उद्दिष्टपरिज्ञात १०, और श्रमणभूत ११ ।
लोकान्त से एक सौ ग्यारह योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र अवस्थित कहा गया है । जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजना के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र संचार करता है ।
श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त,