________________
स्थान- ६/-/५४०
[५४०] जाति आर्य मनुष्य छः प्रकार के हैं । यथा[५४१] अंबष्ठ, कलंद, वैदेह, वेदगायक, हरित, और चुंचण ।
१२७
[ ५४२] कुलार्य मनुष्य छः प्रकार के हैं, यथा- उग्र कुल के, भोग कुल के, राजन्य कुल के, इक्ष्वाकु कुल के, ज्ञात कुल के और कौरव कुल के ।
[५४३] लोक स्थिति छः प्रकार की है, यथा- आकाश पर वायु, वायु पर उदधि, उदधि पर पृथ्वी, पृथ्वी पर त्रस और स्थावर प्राणी, जीव के सहारे अजीव, कर्म के सहारे जीव ।
[५४४] दिशाये छ: है यथा- पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अधो । उक्त छह दिशाओं में जीवों की गति होती हैं । इसी प्रकार जीवों की आगति, व्युत्क्रान्ति, आहार, शरीर की वृद्धि, शरीर की हानि, शरीर की विकुर्वणा, गतिपर्याय, वेदनादि समुद्घात, दिन-रात आदि काल का संयोग, अवधि आदि दर्शन से सामान्य ज्ञान, अवधि आदि ज्ञान से विशेषज्ञान, जीवस्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान, पुद्गलादि अजीवस्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के और मनुष्यों के चौदह - चौदह सूत्र हैं ।
[५४५] छः कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ के आहार करने पर भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता, यथा
[ ५४६] क्षुधा शान्त करने के लिये, सेवा करने के लिए, इर्या समिति के शोधन के लिये, संयम की रक्षा के लिए, प्राणियों की रक्षा के लिये, धर्म चिन्तन के लिये ।
[५४७] छ: कारण से श्रमण निर्ग्रन्थ के आहार त्यागने पर भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता । यथा
[५४८] आतङ्क - ज्वरादि की शान्ति के लिए, उपसर्ग - राजा या स्वजनों द्वारा उपसर्ग किये जाने पर, तितिक्षा - सहिष्णु बनने के लिए, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, प्राणियों की रक्षा के लिये, शरीर त्यागने के लिये ।
[५४९] छ कारणों से आत्मा उन्माद को प्राप्त होता है, यथा- अर्हन्तों का अवर्णवाद बोलने पर, अर्हन्त प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद बोलने पर, आचार्य और उपाध्यायों के अवर्णवाद बोलने पर, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद बोलने पर, यक्षाविष्ट होने पर, मोहनीय कर्म का उदय होने पर ।
[५५०] प्रमाद छः प्रकार के हैं, यथा- १. मद्य, २. निंद्रा, ३. विषय, ४. कषाय, ५. द्यूत, ६. प्रतिलेखना में प्रमाद ।
[५५१] प्रमाद पूर्वक की गई प्रतिलेखना छः प्रकार की है, यथा
[५५२] आरभटा-उतावल से प्रतिलेखना करना, संमर्दा-मर्दन करके प्रतिलेखना करना, मोसली - वस्त्र के ऊपर के नीचे के या तिर्यक् भाग को प्रतिलेखन करते हुए परस्पर छुहाना । प्रस्फोटना - वस्त्र की रज को भड़काना । विक्षिप्ता - प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना । वेदिका - प्रतिलेखना करते समय विधिवत् न बैठना ।
[५५३] अप्रमाद प्रतिलेखना छह प्रकार की है, यथा
[५५४] अनर्तिता - शरीर या वस्त्र को न नचाते हुए प्रतिलेखना करना । अवलितावस्त्र या शरीर को झुकाये बिना प्रतिलेखना करना । अनानुबंधि - उतावल या झटकाये बिना