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स्थान- ८/-/७०२
मनुष्य लोक में उच्चकुलों में उत्पन्न होता है तो उसे सुन्दर शरीर प्राप्त होता है, आस-पास लोग उसका बहुत आदर करते हैं तथा बोलने के लिए आग्रह करते हैं ।
[७०३] संवर आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय संवर, यावत् स्पर्शेन्द्रिय संवर, मन संवर, वचन संवर, काय संवर । असंवर आठ प्रकार का कहा गया है, यथाश्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् काय असंवर ।
[ ७०४] स्पर्श आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष । लोक स्थिति आठ प्रकार की कही गयी है, यथा- आकाश के आधार पर रहा हुआ वायु, वायु के आधार पर रहा हुआ घनोदधि - शेष छठे स्थान के समान - यावत्संसारी जीव कर्म के आधार पर रहे हुए हैं । पुद्गलादि अजीव जीवों से संग्रहीत (बद्ध ) हैं । जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मों से संग्रहीत (बद्ध ) हैं ।
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[ ७०६] गणी (आचार्य) की आठ सम्पदा ( भावसमृद्धि) कही गयी है, यथा - आचार सम्पदा - क्रियारूप सम्पदा, श्रुत सम्पदा - शास्त्र ज्ञान रूप सम्पदा, शरीर सम्पदा - प्रमाणोपेत शरीर तथा अवयव, वचन सम्पदा - आदेय और मधुर वचन, वाचना सम्पदा - शिष्यों की योग्यतानुसार आगमों की वाचना देना । मति सम्पदा - अवग्रहादि बुद्धिरूप, प्रयोग सम्पदा - वाद विषयक स्वसामर्थ्य का ज्ञान तथा द्रव्य-क्षेत्र आदि का ज्ञान और संग्रह परिज्ञा सम्पदा - बाल-वृद्ध तथा रूप आदि के क्षेत्रादि का ज्ञान ।
[७०७] चक्रवर्ती की प्रत्येक महानिधि आठ चक्र के ऊपर प्रतिष्ठित है और प्रत्येक आठ-आठ योजन ऊंचे हैं ।
[७०८] समितियां आठ कही गयी हैं, यथा- ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान भांड मात्र निक्षेपणा समिति, उच्चार प्रस्त्रवण श्लेष्म मल सिंधाण परिष्ठापनिका समिति । मन समिति, वचन समिति, काय समिति ।
[ ७०९] आठ गुण सम्पन्न अणगार आलोचना सुनने योग्य होता है, यथा - आचारवान्, अवधारणावान्, व्यवहारवान्, आलोचक का संकोच मिटाने में समर्थ, शुद्धि करवाने में समर्थ, आलोचक की शक्ति के अनुसार प्रायश्चित्त देनेवाला, आलोचक के दोष अन्य को न कहने वाला और दोष सेवन से अनिष्ट होता है, यह समझाने में समर्थ ।
आठ गुणयुक्त अणगार अपने दोषों की आलोचना कर सकता है, यथा- जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, क्षान्त और दांत ।
[ ७१०] प्रायश्चित्त आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-आलोचनायोग्य, प्रतिक्रमणयोग्य, उभययोग्य, विवेकयोग्य, व्युत्सर्गयोग्य, तपयोग्य, छेदयोग्य और मूलयोग्य ।
[७११] मद स्थान आठ कहे गये हैं, यथा-जाति मद, कुल मद, बल मद, रूप मद, तप मद, सूत्र मद, लाभ मद, ऐश्वर्य मद ।
[७१२] अक्रियावादी आठ हैं, यथा- एक वादी - आत्मा एक ही है ऐसा कहने वाले, अनेकवादी - सभी भावों को भिन्न मानने वाले, मितवादी - अनन्त जीव हैं फिर भी जीवों की एक नियत संख्या माननेवाले । निर्मितवादी - “यह सृष्टि किसी की बनायी हुई है” ऐसा माननेवाले । सातवादी - सुख से रहना, किन्तु तपश्चर्या न करना । समुच्छेदवादी - प्रतिक्षण वस्तु नष्ट होती है, ऐसा माननेवाले क्षणिकवादी । नित्यवादी - सभी वस्तुओं को नित्य मानने