Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 127
________________ १२६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सरलतापूर्वक लगे हुए दोष को स्वीकार करना । प्रतिक्रमण योग्य-लगे हुए दोष की निवृत्ति के लिये पश्चात्ताप करना और पुनः दोष न लगे ऐसी सावधानी रखना । उभय योग्यआलोचन और प्रतिक्रमण योग्य । विवेक योग्य-आधाकर्म आदि सदोष आहार को परठकर शुद्ध होना । व्युत्सर्ग योग्य-कायचेष्टा का निरोध करके शुद्ध होना । तप योग्य-विशिष्ट तप करके शुद्ध होना । [५३३] मनुष्य छः प्रकार के हैं, यथा- जम्बूद्वीप में उत्पन्न । धातकी खण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में उत्पन्न । घातकी खण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में उत्पन्न | पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में उत्पन्न । पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में उत्पन्न । अन्तरद्वीपों में उत्पन्न । अथवा मनुष्य छ: प्रकार के हैं, यथा- सम्मुर्छिम मनुष्य कर्म भूमि में उत्पन्न । सम्मुर्छिम मनुष्य अकर्मभूमि में उत्पन्न । सम्मुर्छि मनुष्य अन्तरद्वीपों में उत्पन्न । गर्भज मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न । गर्भज मनुष्य अकर्मभूमि में उत्पन्न । गर्भज मनुष्य अन्तरद्वीपों में उत्पन्न । [५३४] ऋद्धिमान मनुष्य छः प्रकार के हैं, यथा- अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण, विद्याधर । ऋद्धिरहित मनुष्य छः प्रकार के हैं, यथा- हेमवन्त क्षेत्र के । हैरण्यवन्त क्षेत्र के । हरिवर्ष क्षेत्र के । रम्यक् क्षेत्र के । देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के । अन्तरद्वीपों के ।। [५३५] अवसर्पिणी काल छ: प्रकार का है, सुषम-सुषमा-यावत्-दुषम-दुषमा । -उत्सर्पिणी काल छः प्रकार का है, यथा- दुषम-दुषमा यावत् सुषम-सुषमा । [५३६] जम्बूद्वीपवर्ती भरत और ऐवत क्षेत्रों में अतीत उत्सर्पिणी के सुषम-सुषमा काल में मनुष्य छः हजार धनुष के ऊंचे थे, और उनका परमायु तीन पल्योपमों का था । जम्बूद्वीपवर्ती भरत और ऐवत क्षेत्रो में इस उत्सर्पिणी के सुषम-सुषमा काल में मनुष्यों की ऊँचाई और उनका परमायु पूर्ववत् ही था । जम्बूद्वीपवर्ती भरत और एरवत क्षेत्रों में आगामी उत्सर्पिणी के सुषम-सुषमा काल में मनुष्यों की ऊँचाई और उनका परमायु पूर्ववत् ही होगा । जम्बूद्वीपवर्ती देवकुरु उत्तर कुरुक्षेत्रों में मनुष्यों की ऊंचाई और उनका परमायु पूर्ववत् ही है । इसी प्रकार घातकी खण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में पूर्ववत् चार आलापक हैं यावत्-पुष्करवर द्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में भी पूर्ववत् चार आलापक हैं । [५३७] संघयण छः प्रकार के हैं, यथा- वज्ररिषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलिका संहनन, सेवार्त संहनन । [५३८] संस्थान छः प्रकार के हैं, यथा- सम चतुरस्त्र संस्थान, न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, साती संस्थान, कुब्ज संस्थान, वामन संस्थान, हुंड संस्थान । [५३९] अनात्मभाववर्ती (कषाययुक्त) मनुष्यों के लिए ये छह स्थान अहितकर हैं, अशुभ हैं, अशान्ति मिटाने में असमर्थ हैं, अकल्याणकर हैं, और अशुभ परम्परावाले हैं, यथाआयु, परिवार-पुत्रादि, या शिष्यादि, श्रुत, तप, लाभ, और पूजा-सत्कार । आत्मभाववर्ती (कषायरहित) मनुष्यों के लिए उक्त छह स्थान हितकर हैं, शुभ हैं, अशान्ति मिटाने में समर्थ हैं, कल्याणकर हैं, और शुभ परम्परावाले हैं, यथा- पर्याय यावत् पूजा-सत्कार ।

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