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स्थान-६/-/५७४
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और आश्विन । शरद् कार्तिक और मार्गशीर्ष । हेमन्त-पोष और माघ । बसन्त-फाल्गुन और चैत्र । ग्रीष्म-वैशाख और ज्येष्ठ ।
[५७५] दिनक्षय वाले छः पर्व है । यथा- तृतीयपर्व-आषाढ़ कृष्णपक्ष । सप्तम पर्वभाद्रपद कृष्णपक्ष । ग्यारहवाँ पर्व-कार्तिक कृष्णपक्ष । पन्द्रहवाँ पर्व-पोष कृष्णपक्ष । उन्नीसवाँ पर्व-फाल्गुन कृष्णपक्ष । तेतीसवाँ पर्व-वैशाख कृष्ण पक्ष ।
दिन वृद्धि वाले छः पर्व हैं, यथा- चतुर्थ पर्व-आषाढ़ शुक्ल पक्ष । आठवाँ पर्वभाद्रपद शुक्ल पक्ष । बारहवाँ पर्व-कार्तिक शुक्ल पक्ष । सोलहवाँ पर्व-पोष शुक्ल पक्ष । बीसवाँ पर्व-फाल्गुन शुक्ल पक्ष । चौवीसवाँ पर्व-वैशाख शुक्ल पक्ष ।
[५७६] आभिनिबोधिक ज्ञान के छः अर्थावग्रह हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह यावत् नोइन्द्रिय अर्थावग्रह ।
[५७७] अवधि ज्ञान छः प्रकार का है । यथा- आनुगामिक-मनुष्य के साथ जैसे मनुष्य की आँखें चलती हैं उसी प्रकार अवधि ज्ञान भी अवधिज्ञानी के साथ चलता हैं । अनानुगामिक-जो अवधि ज्ञान दीपक की तरह अवधि ज्ञानी के साथ नहीं चलता । वर्धमानजो अवधि ज्ञान प्रति समय बढ़ता रहता है । हीयमान-जो अवधि ज्ञान प्रति समय क्षीण होता रहता है । प्रतिपाती-जो अवधि ज्ञान पूर्ण लोक को देखने के पश्चात् नष्ट हो जाता है । अप्रतिपाती-जो अवधि ज्ञान पूर्ण लोक को देखने के पश्चात् अलोक के एक प्रदेश को देखने की शक्ति वाला है ।
[५७८] निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को ये छः अवचन कहने योग्य नहीं हैं । यथाअलीक वचन-असत्य वचन । हीलित वचन-इर्ष्या भरे वचन । खिंसित वचन-गुप्त बातें प्रगट करना । पुरुष वचन-कठोर वचन । गृहस्थ वचन–बेटा, भाई आदि करना । उदीर्ण वचनउपशान्त कलह को पुनः उद्दीप्त करने वाले वचन ।
[५७९] कल्प (साधु का आचार) के छः प्रस्तार हैं । यथा-छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुमने प्राणातिपात किया हैं । छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुम मृषावाद बोले हो । छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुमने अमुक वस्तु चुराई है । छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुमने अविरति का सेवन किया है । छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुम अपुरुष । छोटा साधु बड़े साधु को दास वचन कहे । इन छः वचनों का जानबूझ कर भी बड़ा साधु पूर्ण प्रायश्चित न दे तो बड़ा साधु उसी प्रायश्चित्त का भागी होता है ।
[५८०] कल्प (साधु का आचार) के छ: पलिमंथू (संयम के घातक) हैं | यथाकौत्कुच्य-कुचेष्टा करना संयम का घात करना है । मौखर्य-अनावश्यक बोलना सत्य वचन का घात करना है । चक्षुलोलुप-चंचल चक्षु रहना ईर्यासमिति का घात करना है । तितिनिकइष्ट वस्तु के अलाभ से दुखी होना एषणा प्रधान गोचरी का घात करना है । इच्छालोभिक अति लोभ करना मुक्ति मार्ग का घात करना है । मिथ्या निदान करण-लोभ से निदान करना मोक्ष मार्ग का घात करना है । क्योंकि निदान न करना ही भगवान् ने प्रशस्त कहा है ।
[५८१] कल्प-साध्याचार-की व्यवस्था छः प्रकार की है, यथा-सामायिक कल्पस्थिति सामायिक संबंधी मर्यादा । छेदोपस्थापनिक कल्पस्थिति-शैक्षकाल पूर्ण होने पर पंच महाव्रत धारण कराने की मर्यादा । निर्विसमान कल्प स्थिति–परिहार विशुद्धि तप स्वीकार करनेवाले की