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स्थान- ७/-/६६१
( अत्यधिक आहार) से, वेदना (आंख आदि की तीव्र वेदना ) से, पराघात (आकस्मिक आघात) से, स्पर्श (सर्प बिच्छु आदि के डंक ) से, श्वासोच्छ्वास (के रोकने) से ।
[६६२] सभी जीव सात प्रकार के हैं, यथा- पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक ।
सभी जीव सात प्रकार के हैं, यथा- कृष्णलेश्या वाले, यावत् शुक्ललेश्या वाले और
अलेशी ।
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[६६३] ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सात धनुष के ऊंचे थे । वे सातसौ वर्ष का पूर्वायु होने पर, सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में नैरयिक रूप में उत्पन्न हुए ।
[ ६६४ ] मल्लीनाथ अर्हन्त स्वयं सातवे ( सात राजाओं के साथ) मुण्डित हुये और गृहस्थावास त्यागकर अणगार प्रव्रज्या से प्रव्रजित हुये । यथा - मल्ली - विदेह राज कन्या, प्रतिबुद्धी - इक्ष्वाकुराजा, चन्द्रच्छाय- अंगदेश का राजा, रुक्मी-कुणाल देश का राजा, शंखकाशी देश का राजा, अदीन शत्रु कुरु देश का राजा, जित शत्रु- पांचाल देश का राजा ।
[ ६६५ ] दर्शन सात प्रकार का कहा गया है, यथा- सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन, सम्यग्मिथ्यादर्शन, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवल दर्शन ।
[६६६] छद्मस्थ वीतराग मोहनीय को छोड़कर सात कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैंयथा - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्तरायकर्म । [६६७] छद्मस्थ सात स्थानों को पूर्णरूप से न जानता है और न देखता है, यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर रहित जीव, परमाणु पुद्गल, शब्द और गन्ध । इन्हीं सात स्थानों को सर्वज्ञ पूर्ण रूप से जानता है और देखता है । यथा - धर्मास्तिकाय यावत् गन्ध ।
[६६८] श्रमण भगवान महावीर वज्रऋषभनाराचसंघयण वाले समचतुरस्त्रसंस्थान वाले और सात हाथ ऊंचे थे ।
[६६९] सात विकथायें कही गई हैं, यथा- स्त्री कथा, भक्त (आहार) कथा, देश कथा, राज कथा, मृदुकारिणी कथा, दर्शनभेदिनी, चारित्र भेदिनी ।
[६७०] गण में आचार्य और उपाध्याय के सात अतिशय हैं । यथा - आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में धूल भरे पैरों को दूसरे से झटकवावे या पुंछावे तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता - शेष पांचवे ठाणे के समान यावत् आचार्य उपाध्याय उपाश्रय के बाहर इच्छानुसार एक रात या दो रात रहे तो भी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं होता । उपकरण की विशेषताआचार्य या उपाध्याय उज्ज्वल वस्त्र रखे तो मर्यादा का लंघन नहीं होता । भक्तपान की विशेषता - आचार्य या उपाधाय श्रेष्ठ और पथ्य भोजन ले तो मर्यादा का अतिक्रमण नहीं होता । [६७१] संयम सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा- पृथ्वीकायिक संयम - यावत् स कायिक संयम और अजीवकाय संयम .
असंयम सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा- पृथ्वीकायिक असंयम - यावत् सकायिक असंयम और अजीवकाय असंयम ।
आरम्भ सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा- पृथ्वीकायिक आरम्भ - यावत् अजीवकाय आरम्भ । इसी प्रकार अनारम्भसूत्र हैं । सारंभसूत्र है । असारंभसूत्र है । समारंभसूत्र है ।