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स्थान-६/-/५२०
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हो, चुपचाप साथ जावे तो ।
[५२१] छः स्थान छद्मस्थ पूर्ण रूप से नहीं जानता है और नहीं देखता है । यथाधर्मास्तिकाय को, अधर्मास्तिकाय को, आकाशास्तिकाय को, शरीर रहित जीव को, परमाणु पुद्गल को, शब्द को । इन्हीं छ: स्थानों को केवलज्ञानी अर्हन्त जिन पूर्णरूप से जानते हैं और देखते हैं । यथा-१. धर्मास्तिकाय को-यावत्-शब्द को ।
[५२२] छः कारणों से जीवों को कृद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पराक्रम प्राप्त नहीं होता है । यथा- जीव को अजीव करना चाहे तो, अजीव को जीव करना चाहे तो, सच
और झूठ एक साथ बोले तो, स्वकृत कर्म भोगे या न भोगे-ऐसा माने तो, परमाणु को छेदनभेदन करना चाहे अथवा अग्नि से जलाना चाहे तो, लोक से बाहर जाने तो |
[५२३] छ: जीव निकाय हैं, यथा- पृथ्वीकाय-यावत्-त्रसकाय । [५२४] छः ग्रह छ:-छः तारा वाले हैं, यथा-शुक्र, बुध, बृहस्पति, अंगारक, शनैश्चर,
केतु ।
[५२५] संसारी जीव छः प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक यावत्-त्रसकायिक । पृथ्वीकायिक जीव छः गति और छः आगति वाले हैं, यथा-१ पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तो पृथ्वीकायिकों से यावत्-त्रसकायिकों से उत्पन्न होते हैं । वही पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकपने को छोड़कर पृथ्वीकायिकपने को-यावत्-त्रसकायिकपने को प्राप्त होता है । अप्कायिक जीव छः गति और छः आगति वाले हैं । इसी प्रकार यावत्-त्रसकायिक पर्यन्तक है ।
[५२६] जीव छः प्रकार के हैं, यथा- आभिनिबोधिक ज्ञानी-यावत्-केवलज्ञानी और अज्ञानी ।
अथवा जीव छः प्रकार के हैं । यथा- एकेन्द्रिय-यावत्-पंचेन्द्रिय और अनीन्द्रिय ।
अथवा जीव छः प्रकार के हैं, यथा-१ औदरिक शरीरी, २ वैक्रिय शरीरी, ३ आहारक शरीरी, ४ तैजस शरीरी, ५ कार्मण शरीरी, ६ अशरीरी ।
[५२७] तृण वनस्पतिकाय छः प्रकार के हैं, १ अग्रबीज, २ मूलबीज, ३ पर्वबीज, ४ स्कन्धबीज, ५ बीजरूह, ६ सम्भूर्छिम ।
[५२८] छः स्थान सब जीवों को सुलभ नहीं है, मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र में जन्म, सुकुल में उत्पत्ति, केवली कथित धर्म का श्रवण, श्रुत धर्म पर श्रद्धा, श्रद्धित, प्रतीत और रोचित धर्म का आचरण | छः इन्द्रियों के छ: विषय हैं । यथा
[५२९] श्रोत्रेन्द्रिय का विषय-यावत्-स्पर्शेन्द्रिय का विषय, मनका विषय ।
[५३०] संवर छ: प्रकार के हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय संवर यावत-स्पर्शेन्द्रिय संवर और मन संवर । असंवर (आश्रव) छः प्रकार के हैं, यथा- श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत्-स्पर्शेन्द्रिय असंवर, और मन असंवर ।
[५३१] सुख छः प्रकार का है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय का सुख यावत् स्पर्शेन्द्रिय का सुख, और मन का सुख । दुःख छः प्रकार का है, यथा- श्रोत्रेन्द्रिय का दुःख यावत् स्पर्शेन्द्रिय का दुःख, और मन का दुःख ।
[५३२] प्रायश्चित्त छः प्रकार का है, यथा- आलोचना योग्य-गुरु के समक्ष