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स्थान- ४ /३/३४५
[ ३४५] देवलोक में उत्पन्न होते ही कोई देवता मनुष्य लोक में आना चाहता हैं किन्तु चार कारणों से वह नहीं आ सकता । यथा- १. देवलोक में उत्पन्न होते ही एक देवता दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, बद्ध एवं आसक्त हो जाता है, अतः वह मानव काम-भोगों को न प्राप्त करना चाहता हैं और न उन्हें श्रेष्ठ मानता है । मानव काम भोगों से मुझे कोई लाभ नहीं है - ऐसा निश्चय कर लेता हैं । मुझे मानव काम भोग मिले ऐसी कामना भी नहीं करता और मानव काम-भोगों में मैं कुछ समय लगा रहूं- ऐसा विकल्प भी मन में नहीं लाता । २. देवलोक में उत्पन्न होते ही एक देवता दिव्य काम-भोगों में मूर्छित यावत्-आसक्त हो जाता है, अतः उसका मानव प्रेम दैवी प्रेम में परिणत हो जाता हैं । ३. देवलोक में उत्पन्न होते ही एक देवता दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त हो जाता हैं, अतः उसके मन में यह विकल्प आता हैं कि "मैं अभी जाऊँगा या एक मुहुर्त पश्चात जाऊंगा" ऐसा सोचते-सोचते उसके पूर्व जन्म के प्रेमी काल धर्म को प्राप्त हो जाते हैं । ४. देवलोक में उत्पन्न होते हुए ही एक देवता दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त हो जाता हैं, अतः उसे मनुष्य लोक की गन्ध भी अच्छी नहीं लगती । क्योंकि मनुष्य लोक की गन्ध चारसो पाँच योजन तक जाती हैं ।
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देवलोक से उत्पन्न होते ही देवता मनुष्य लोक में आना चाहता है और इन चार कारणों से आ भी सकता हैं । १. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित यावत् आसक्त नहीं होता क्योंकि उसके मन में यह विकल्प आता हैं कि मेरे मनुष्य भव के आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर और गणावच्छेदक हैं उनकी कृपा से मुझे यह दिव्य देवसृष्टि, दिव्य देवद्युति प्राप्त हुई हैं, अतः मैं जाऊँ और उन्हें बन्दना करूँ- यावत् पर्युपासना करूं । २. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य काम-भोगों में मूर्छिच यावत्-आसक्त नहीं होता, क्योंकि मन में यह विकल्प आता हैं कि इस मनुष्य में जो ज्ञानी या दुष्कर तप करनेवाले तपस्वी हैं उन भगवन्तों की वन्दना करूँ - यावत् पर्युपासना करूँ ३. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त नहीं होता क्योंकि उसने मन में यह विकल्प आता है कि मेरे मनुष्य भव के माता-पिता यावत् पुत्रवधु है, उनके समीप जाऊं और उन्हें यह दिखाऊं कि मुझें ऐसी दिव्य देव सृष्टि और दिव्य देवघुति प्राप्त हुई है । ४. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवती दिव्य-काम-भोगों में मूर्छित यावत्-आसक्त नहीं होता क्योंकि उसके मन में यह विकल्प आता हैं कि मेरे मनुष्यभव के मित्र, सखी, सुहृत, सखा या संगी हैं उनके और मेरे साथ यह वादा हो चुका हैं कि जो पहले मरेगा वह कहने के लिये आवेगा । इन चार कारणों से देवता देवलोक में उत्पन्न होते ही मूर्च्छित यावत्-आसक्त नहीं होता हैं और मनुष्य लोक में आ सकता हैं ।
लोक में अन्धकार चार कारणों से होता है । यथा - अर्हन्तो के मोक्ष जाने पर, अर्हन्त कथित धर्म के लुप्त होने पर, पूर्वों का ज्ञान नष्ट होने पर, अग्नि न रहने पर ।
लोक में उद्योत चार कारणों से होता हैं । यथा - अर्हन्तों के जन्म समय में, अर्हन्तों के प्रवजित होते समय, अर्हन्तों के केवल ज्ञान महोत्सव में, अर्हन्तों के निर्वाण महोत्सव में । " इसी प्रकार देवलोक में अंधकार, उद्योत, देव समुदाय का एकत्र होना, उत्साहित होना और आनन्दजन्य कोलाहल होना” के चार-चार भाँगे कहें ।