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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
देवेन्द्र- यावत्-लोकान्तिक देव चार कारणों से मनुष्य लोक में आते हैं । तीसरे स्थान में कथित तीन कारणों "अरिहंतों के निर्वाणमहोत्सव का एक कारण बढाए ।
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[३४७] दुखशय्या चार प्रकार की हैं । उनमें यह प्रथम दुख शय्या है । यथा- एक व्यक्ति मंडित होकर यावत् प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा करता हैं तो वह मानसिक दुविधा में धर्म विपरीत विचारों से निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं रखता हैं । निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि रखने पर श्रमण का मन सदा ऊँचा नीचा रहता हैं अतः वह धर्म भ्रष्ट हो जाता है । यह दूसरी दुख शय्या है । यथा - "एक व्यक्ति मुंडित यावत् प्रव्रजित होकर स्वयं को जो आहार आदि प्राप्त है, उससे सन्तुष्ट नहीं होता हैं और दूसरे को जो आहार आदि प्राप्त हैं, उनकी इच्छा करता है" ऐसे श्रमण का मन सदा ऊँचा-नीचा रहता हैं अतः वह धर्म भ्रष्ट हो जाता हैं । यह तीसरी दुखशय्या हैं - एक व्तक्ति मुंडित यावत् प्रव्रजित होकर जो दिव्य मानवी काम-भोगों का आस्वादन - यावत्-अभिलाषा करता हैं । उस श्रमण का मन सदा डांवाडोल रहता हैं अतः वह धर्मभ्रष्ट हो जाता हैं । यह चौथी दुखशय्या हैं- एक व्यक्ति मुंडित यावत् प्रव्रजित होकर ऐसा सोचता हैं कि मैं जब घर पर था तब मालिश, मर्दन, स्नान आदि नियमित करता था और जब से मैं मंडित यावत्-प्रव्रजित हुआ हूं जब से मैं मालिश, मर्दन स्नान आदि नहीं कर पाता हूं-इस प्रकार श्रमण जो मालिश - यावत्-स्नान आदि की इच्छा - यावत् अभिलाषा करता हैं उसका मन सदा डांवाडोल रहता हैं अतः वह धर्म भ्रष्ट हो जाता हैं
सुखशय्या चार प्रकार की हैं उनमें से यह प्रथम सुख शय्या हैं । यथा- एक व्यक्ति मंडित होकर यावत् प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा नहीं करता हैं। तो वह न दुविधा में पड़ता हैं और न धर्म विपरीत विचार रखता हैं । निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखने पर श्रमण का मन डांवाडोल नहीं होता, अतः वह धर्म भ्रष्ट भी नहीं होता । यह दूसरी सुखशय्या हैं - एक व्यक्ति मुंडित यावत् प्रव्रजित होकर स्वयं को प्राप्त आहार आदि से संतुष्ट रहती हैं और अन्य को प्राप्त आहार आदि की अभिलाषा नहीं रखता हैं- ऐसे श्रमण का मन कभी ऊँचा नीचा नहीं होता और न वह धर्म-भ्रष्ट होता हैं । यह तीसरी सुख शय्या हैं - एक व्यक्ति मंडित यावत् प्रव्रजित होकर दिव्य मानवी काम-भोगों का आस्वादन - यावत्-अभिलाषा नहीं करता हैं उस का मन डांवाडोल नहीं होता हैं, अतः धर्म भ्रष्ट भी नहीं होता । यह चौथी सुखशय्या है- एक व्यक्ति मुंडित यावत् प्रव्रजित होकर ऐसा सोचता है कि'अरिहंत भगवंत आरोग्यशाली, बलवान शरीर के धारक, उदार कल्याण विपुल कर्मक्षयकारी तपःकर्म को अंगीकार करते हैं, तो मुझे तो जो वेदना आदि उपस्थित हुई हैं उसे सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिए । यदि मैं आगत वेदनी कर्मों को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करूँगा तो एकान्त पाप कर्म का भागी होऊँगा । यदि सम्यक् प्रकार से सहन करूँगा तो एकान्त कर्म निर्जरा कर सकूंगा ।' इस प्रकार धर्म में स्थिर रहता हैं ।
[३४८] चार प्रकार के व्यक्ति आगम वाचना के अयोग्य होते हैं । यथा - अवियनी, दूध आदि पौष्टिक आहारों का अधिक सेवन करनेवाला, अनुपशांत अर्थात् अति क्रोधी मायावी । चार प्रकार के आगम वाचना के योग्य होते हैं । यथा-विनयी, दूध आदि पौष्टिक आहारों का अधिक सेवन न करनेवाला, उपशान्त क्षमाशील, कपट रहित ।