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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद [४५६] पांच आश्रवद्वार कहे गए हैं, यथा- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग ।
पांच संवर द्वारा कहे गये हैं- सम्यकत्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभयोग ।
पांच प्रकार का दण्ड कहा गया है, यथा- अर्थ दण्ड-स्व-पर के हित के लिए त्रस या स्थावर प्राणी की हिंसा । अनर्थ दण्ड-निरर्थक हिंसा । हिंसा दण्ड-जिसने अतीत में हिंसा की है जो वर्तमान में हिंसा करता है और जो भविष्य में हिंसा करेगा-इस अभिप्राय से जो सर्प या शत्रु की घात करता है । अकस्मात दण्ड-किसी अन्य पर प्रहार किया था किन्तु वध अन्य का हो गया हो । दृष्टिविपर्यास दण्ड-“यह शत्रु है" इस अभिप्राय से कदाचित् मित्र का वध हो जाय ।
[४५७] मिथ्यादृष्टिओको पांच क्रियायें कही गई है, यथा- आरंभिकी, पारिश्रहिकी, मायाप्रत्ययिका, अप्रत्याख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शन प्रत्यया ।
. मिथ्यादृष्टि नैरयिकों के पाँच क्रियायें कही गई हैं, यथा-आरंभिकी-यावत, मिथ्यादर्शन प्रत्यया । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी मिथ्यादृष्टियों को पांच क्रियायें कही गई हैं । विशेष-विकलेन्द्रिय मिथ्याद्दष्टि नहीं होते हैं । शेष पूर्ववत् है ।
पांच क्रियायें कही गई हैं, यथा- कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी । नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पांच क्रियायें हैं ।
पांच क्रियायें कही गई हैं, यथा- आरंभिकी-यावत्, मिथ्यादर्शन प्रत्यया नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पांचों क्रियायें हैं ।।
पांच क्रियायें कही गई हैं, यथा- दृष्टिजा, पृष्टिजा, प्रातीत्यिकी, सामंतोपनिपातिकी, स्वाहस्तिकी । नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पांच क्रियायें हैं ।
पांच क्रियायें कही गई हैं, यथा- नैसृष्टिकी, आज्ञापानिकी, वैदारणिकी, अनाभोग प्रत्यया, अनवकांक्षप्रत्यया । नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पांच क्रियायें हैं ।
पांच क्रियायें कही गई हैं, प्रेमप्रत्यया, द्वेषप्रत्यया, प्रयोगक्रिया, समुदान क्रिया, ईर्यापथिकी । ये पांचों क्रियाये केवल एक मनुष्य दण्डक में हैं । शेष दण्डकों में नहीं है ।
[४५८] परिज्ञा पांच प्रकार की हैं, यथा- उपधि परिज्ञा, उपाश्रय परिज्ञा, कषाय परिज्ञा, योग परिज्ञा, भक्त परिज्ञा ।
[४५९] व्यवहार पांच प्रकार का है, यथा- आगम व्यवहार, श्रुत व्यवहार, आज्ञा व्यवहार, धारणा व्यवहार, जीत व्यवहार । किसी विवादास्पद विषय में जहाँ तक आगम से कोई निर्णय निकलता हो वहां तक आगम के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिये । जहाँ किसी आगम से निर्णय न निकलता हो वहां श्रुत से व्यवहार करना चाहिए । जहाँ श्रुत से निर्णय न निकलता हो वहां गीतार्थ की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करना चाहिये । जहां गीतार्थ की आज्ञा से समस्या हल न होती हो वहां धारणा के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । जहाँ धारणा से समस्या न सुलझती हो वहां जीत (गीतार्थ पुरुषों की परम्परा द्वारा अनुसरित) आचार के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । इस प्रकार आगमादि से व्यवहार करना चाहिए ।
हे भगवान् ! श्रमण निर्ग्रन्थ आगम व्यवहार को ही प्रमुख मानने वाले हैं फिर ये पाँच व्यवहार क्यों कहे गये हैं ? इन पांच व्यवहारों में से जहां जिस व्यवहार से समस्या सुलझती