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स्थान-३/४/२०५
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स्थान-३-उद्देशक-४ | [२०५] प्रतिमाधारी अनगार को तीन उपाश्रयों का प्रतिलेखन करना कल्पता हैं, यथा-अतिथिगृह में, खुले मकान में, वृक्ष के नीचे । इसी प्रकार तीन उपाश्रयों की आज्ञा लेना
और उनका ग्रहण करना कल्पता हैं । प्रतिमाधारी अनगार को तीन संस्तारको की प्रतिलेखना करना कल्पता हैं, यथा-पृथ्वी-शिला, काष्ठ-शिला और तृणादि । इसी प्रकार तीन संस्तारकों की आज्ञा लेना और ग्रहण करना कल्पता हैं ।
[२०६] काल तीन प्रकार के कहे गये हैं, भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल |
समय तीन प्रकार का कहा गया हैं, यथा-अतीत काल, वर्तमानकाल और अनागत काल । इसी तरह आवलिका, श्वासोच्छवास, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र-यावत्क्रोड़वर्ष, पूर्वांग, पूर्व,-यावत्-अवसर्पिणी ।
पुद्गल परिवर्तन तीन प्रकार का हैं, यथा-अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत ।
[२०७] वचन तीन प्रकार के है-एकवचन, द्विवचन और बहुवचन । अथवा वचन तीन प्रकार के हैं, स्त्री वचन, पुरुषवचन और नपुंसक वचन । अथवा तीन प्रकार के वचन हैं, अतीत वचन, वर्तमान वचन और भविष्य वचन ।
[२०८] तीन प्रकार की प्रज्ञापना कही गई हैं, यथा-ज्ञान प्रज्ञापना, दर्शन प्रज्ञापना और चारित्र प्रज्ञापना ।
तीन प्रकार के सम्यक् हैं, ज्ञान सम्यक्, दर्शन सम्यक् और चारित्र सम्यक् । तीन प्रकार के उपघात कहे गये हैं, उद्गमोपघात, उत्पादनोपघात और एषणोपघात । इसी तरह तीन प्रकार की विशुद्धि कही गई हैं, यथा-उद्गम-विशद्धि आदि ।
[२०९] तीन प्रकार की आराधना कही गई हैं, यथा-ज्ञानाराधना, दर्शनराधना और चारित्राराधना । ज्ञानाराधना तीन प्रकार की कही गई हैं, यथा-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इसी तरह दर्शन आराधना और चारित्र आराधना कहनी चाहिए ।
तीन प्रकार का संक्लेश कहा गया हैं, ज्ञानसंक्लश, दर्शनसंक्लेश और चारित्रसंक्लेश । इसी तरह असंक्लेश, अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार भी समझने चाहिए ।
तीन का अतिक्रमण करने पर आलोचना करनी चाहिये, प्रतिक्रमण करना चाहिये, निन्दा करनी चाहिये, गर्दा करनी चाहिये-यावत्-तप अंगीकार करना चाहिये, यथा-ज्ञान का अतिक्रमण करने पर, दर्शन का अतिक्रमण करने पर, चारित्र का अतिक्रमण करने पर । इसी तरह व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार करने पर भी आलोचनादि करनी चाहिये ।
[२१०] प्रायश्चित्त तीन प्रकार कहा गया है, यथा-आलोचना के योग्य, प्रतिक्रमण के योग्य, उभय योग्य ।
२११] जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के दक्षिण में तीन अकर्मभूमियां कही गई हैं, यथाहेमवत, हरिवास और देवकुरु । जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर में तीन अकर्मभूमियां कही गई हैं, यथा-उत्तरकुरु, रम्यक्वास और हिरण्यवत ।
जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के दक्षिण में तीन क्षेत्र कहे गये हैं, यथा-भरत, हेमवत और हरिवास । जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर में तीन क्षेत्र कहे गये हैं, यथा-रम्यक्वास,