Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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टीकाकार आचार्य मलयगिरि की दृष्टि से समवायांग में जो वर्णन है, उसी का विस्तार प्रज्ञापना में हुआ है। अतः प्रज्ञापना समवायांग का उपांग है। पर स्वयं शास्त्रकार ने इसका सम्बन्ध दृष्टिवाद से बताया है। अतः यही मानना उचित प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध समवायांग की अपेक्षा दृष्टिवाद से अधिक है। किन्तु दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दृष्टि (दर्शन) का ही वर्णन था। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव, अजीव आदि तत्त्वों का निरूपण है और प्रज्ञापना में भी यही निरूपण है, अतः प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग मानने में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं है।
___ प्रज्ञापना में छत्तीस विषयों का निर्देश है, इसलिए इसके छत्तीस प्रकरण हैं। प्रकरण को इसमें 'पद' नाम दिया है। प्रत्येक प्रकरण के अन्त में प्रतिपाद्य विषयं के साथ पद शब्द व्यवहत हुआ है। आचार्य मलयगिरि पद की व्याख्या करते हुये लिखते हैं—'पदं प्रकरणमर्थाधिकारः इति पर्यायाः३७, अतः यहाँ पद का अर्थ प्रकरण३८ और अर्थाधिकार समझना चाहिए। रचना-शैली
___ प्रज्ञापना की रचना प्रश्नोत्तर के रूप में हुई है। प्रथम सूत्र से लेकर इक्यासीवें सूत्र तक प्रश्नकर्ता कौन है और उत्तरदाता कौन है? इस सम्बन्ध में कोई भी सूचना नहीं है। केवल प्रश्न और उत्तर हैं। इसके पश्चात् बयासीवें सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर और गणधर गौतम का संवाद है। तेरासीवें सूत्र से लेकर बानवे (९२) सूत्र तक सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। तेरानवें सूत्र में गणधर गौतम और महावीर के प्रश्नोत्तर, उसके पश्चात् चौरानवै सूत्र से लेकर एक सौ सेतालीसवें सूत्र तक सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। उसके पश्चात् एक सौ अड़तालीस से लेकर दो सौ ग्यारह तक अर्थात् सम्पूर्ण द्वितीय पद में; तृतीय पद के सूत्र दो सौ पच्चीस से दो सौ पचहत्तर तक और सूत्र तीन सौ पच्चीस, तीन सौ तीस से तीन सौ तैतीस तक व चतुर्थ पद से लेकर शेष सभी पदों के सूत्रों में गौतम गणधर और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर दिये हैं। केवल उनके प्रारम्भ, मध्य और अन्त में आने वाली गाथा और एक हजार छियासी में वे प्रश्नोत्तर नहीं हैं।३८
जिस प्रकार प्रारम्भ में सम्पूर्ण ग्रन्थ की अधिकार गाथाएँ आई हैं, उसी प्रकार कितने ही पदों के प्रारम्भ में भी विषय निर्देशक गाथाएँ हैं। उदाहरण के रूप में तीसरे, अठारहवें, बीसवें और तेईसवें पदों के प्रारम्भ और उपसंहार में गाथाएँ हैं। इसी प्रकार दसवें पद के अन्त में, ग्रन्थ के मध्य में और जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ भी गाथाएँ दी गई हैं।३९ सम्पूर्ण आगम का श्लोकप्रमाण सात हजार आठ सौ सत्तासी है। इसमें प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर कुल दो सौ बत्तीस गाथाएँ हैं और शेष गद्य भाग हैं। इस आगम में जो संग्रहणी गाथाएँ हैं, उनके रचयिता कौन हैं? यह कहना कठिन है। प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में से प्रथम पद में जीव के दो भेद -संसारी और सिद्ध बताये हैं। उसके बाद इन्द्रियों के क्रम के अनुसार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में सभी संसारी जीवों का समावेश करके निरूपण किया है। यहाँ जीव के भेदों का नियामक
३७. प्रज्ञापना टीका, पत्र ६ ३८. सूत्रसमूहः प्रकरणम्।-न्यायवार्तिक, पृ० १ ३९. पण्णवणासुत्तं, द्वितीय भाग (प्रकाशक-श्री महावीर जैन विद्यालय) प्रस्तावना, पृष्ठ १०-११.
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