Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चिन्तन करते हुए उसकी मर्यादायें तथा उसके क्रमिक विकास की सीमायें बताई हैं । प्रज्ञा की सात भूमिकाएँ भी बताई हैं। जितना संयम का विकास होता है, उतनी ही प्रज्ञा निर्मल होती है। संक्षेप में सारांश यह है कि विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है ।
प्रज्ञापना में जीव और अजीव का गहराई से निरूपण होने के करण इस आगम का नाम 'प्रज्ञापना' रखा गया है। भगवती,२१ आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, २२ आवश्यकचूर्णि, २३ महावीरचरियं, २४ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, २५ में श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा छद्मस्थ अवस्था में महास्वप्न में देखने का उल्लेख है । उन स्वप्नों में तृतीय स्वप्न यह था — एक रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल उनके सामने समुपस्थित था। उस स्वप्न का फल था—वे विविध ज्ञानमय द्वादशांग श्रुत की प्रज्ञापना करेंगे। इसमें 'प्रज्ञापयति' और 'प्ररूपयति' इन क्रियाओं से यह स्पष्ट है कि भगवान् का उपदेश प्रज्ञापना- प्ररूपणा है। उस उपदेश को मूल आधार बनाकर प्रस्तुत आगम की रचना की गई है, इसलिए इसका नाम 'प्रज्ञापना' रखा गया। प्रस्तुत आगम के रचयिता श्यामाचार्य ने इसका सामान्य नाम 'अध्ययन' दिया है २६ और विशेष नाम 'प्रज्ञापना' दिया है । उनका अभिमत हैभगवान् महावीर ने सर्वभावों की प्रज्ञापना की है । उसी प्रकार मैं भी यहाँ सर्वभावों की प्रज्ञापना करने वाला हूँ। अतः इस आगम का विशेष नाम 'प्रज्ञापना' है । २७ उत्तराध्ययन की तरह प्रस्तुत आगम का पूर्ण नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन' यह हो सकता है।
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प्रज्ञापना सूत्र में एक ही अध्ययन है, जबकि उत्तराध्ययन में छत्तीस अध्ययन हैं । प्रज्ञापना के प्रत्येक पद के अन्त में 'पन्नवणाए भगवईए' यह पाठ मिलता है, इसीलिए यह स्पष्ट है कि अंग साहित्य में जो स्थान भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) का है, वही स्थान उपांगों में 'प्रज्ञापना' का है । अंगसाहित्य में जहाँ-तहाँ भगवान् ने यह कहा इस प्रकार के वाक्य उपलब्ध होते हैं । यहाँ पर 'पण्णत्तं' शब्द का प्रयोग हुआ है । . प्रस्तुत आगम में भी प्रज्ञापना शब्द का प्राधान्य है, सम्भवत: इसीलिए श्यामाचार्य ने इसका नाम प्रज्ञापना रखा है। भगवती सूत्र में आर्यस्कन्धक का वर्णन है। वहां पर स्वयं भगवान् महावीर ने कहा है- ' एवं खलु मए खन्धया ! चउव्विहे लोए पण्णत्ते" । २८ इसी तरह आचारांग आदि आगमों में अनेक स्थलों पर भगवान् के उपदेश के लिए प्रज्ञापना शब्द का प्रयोग हुआ है । आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार प्रज्ञापना में जो 'प्र' उपसर्ग है, वह भगवान् महावीर के उपदेश की विशेषता को सूचित करता है । भगवान् महावीर के समय २१. भगवती १६ / ६/५७०
२२. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृष्ठ २७०
२३. आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ २७५
२४. महावीरचरियं ५ / १५५
२५. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र १० / ३ / १४६२
२६.
२७.
" अज्झयणमिणं चित्तं " - प्रज्ञापना गा. ३ "उवदंसिया भगवया पण्णवया सव्व भावाणं ।
जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि । प्रज्ञापना गा. २-३
२८. भगवतीसूत्र, २/१/९०,
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