________________ 4. निमितवादी नयायिक, वैशेषिक प्रादि-जो लोक को ईश्वरकृत मानते हैं / 25 5. सातवादी आचार्य अभयदेव के 26 अनुसार 'सातवाद' बौद्धों का मत है। सूत्रकृतांग से भी इस कथन की पुष्टि होती है / 27 चार्वाकदर्शन का साध्य सुख है। तथापि वह सातवादी नहीं है। क्योंकि "सात सातेण विज्जति" सुख का कारण सुख ही है। प्रस्तुत कार्य-कारण का सिद्धान्त चार्वाकदर्शन का नहीं है। बौद्धदर्शन पुनर्जन्म में निष्ठा रखता है। उसकी मध्यम प्रतिपदा भी कठिनाइयों से बचकर चलने की है, इसलिए वह सातवादी माना गया है। चणिकार ने भी सातवाद को बौद्ध माना है। "सात सातेण विज्जति"-- इस पर चिन्तन करते हुए चूणिकार ने लिखा है-..-'इदानीम् शाक्या: परामृश्यन्ते' अर्थात् अब बौद्धों के सम्बन्ध में हम चिन्तन कर रहे हैं / भगवान् महावीर ने कायक्लेश पर बल दिया। "अत्तहियं खु दुहेण लब्भई"..अात्महित कष्ट से सिद्ध होता है। जैनदर्शन ने बौद्धों के सामने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया। बौद्धों का मन्तव्य है-शारीरिक कष्ट की अपेक्षा मानसिक समाधि का होना आवश्यक है। कार्य-कारण के सिद्धान्तानुसार दुःख, सुख का कारण नहीं हो सकता / इसलिए सुख, सुख से ही प्राप्त होता है। प्राचार्य शीलांक ने बौद्धों का सातवाद सिद्धान्त माना ही है साथ ही जो परिषह को सहन करने में असमर्थ हैं, ऐसे जैन मुनियों का भी अभिमत माना है।२८ 6. समुच्छेदवादी प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। उत्पत्ति-अनन्तर दूसरे ही क्षण में उसका उच्छेद हो जाता है, ऐसा बौद्ध मन्तव्य हैं / इसलिए बौद्ध दर्शन समुच्छेदवादी माना गया है / 7. नित्यवादी सांख्यदर्शन के सत्कार्यवाद के अनुसार पदार्थ कूटस्थ नित्य है / कारण रूप में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व रहता है। कोई भी पदार्थ नुतन रूप से पैदा नहीं होता और न वह विनष्ट ही होता है। पदार्थ का आविर्भाव और तिरोभाव मात्र होता है / 26 8. असत् परलोकवादी चार्वाक दर्शन न मोक्ष को मानता है और न परलोक आदि को स्वीकार करता है। राजा प्रदेशी : एक परिचय-- राजा प्रदेशी प्रक्रियावादी था और उसी दृष्टि से उसने अपनी जिज्ञासायें के शीश्रमण के सामने प्रस्तुत की थीं। डा. विन्टरनीज का मन्तव्य है कि प्रस्तुत आगम में पहले राजा प्रसेनजित की कथा थी / उसके पश्चात 25. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् / न पुरुषकर्माभावे फलानिष्पत्तेः / / तत्कारितत्वादहेतः / -न्यायसूत्र, 4 / 1 / 19-21 26. स्थानांगवत्ति, पत्र 404 / 27. सूत्रकृतांग-३१४१६ 28. सूत्रकृतांगवति, पत्र 96 : एके शाक्यादय : स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः / 29. सांख्यकारिका--९. [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org