________________ श्रुत के अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत और असंज्ञीश्रुत आदि चौदह भेद किये गये हैं। उनमें सम्यक्श्रुत वह है जो बीतरागप्ररूपित है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान् ने अपने आपको देखा एवं समूचे लोक को भी हस्तामलकवत् देखा : भगवान ने सत्य का प्रतिपादन किया। उन्होंने बन्ध, बन्धहेतु, मोक्ष, और मोक्षहेतु का स्वरूप प्रकट किया। भगवान् की वह पावन वाणी पागम बन गई / इन्द्रभूति गौतम आदि प्रमुख शिष्यों ने उस वाणी को सूत्र रूप में ग्था, जिससे आगम के सूत्रागम और अर्थागम ये दो विभाग हए / भगवान के प्रकीर्ण उपदेश को 'प्रर्थागम' और उसके प्राधार पर की गई सूत्ररचना को 'सूत्रागम' कहा गया। यह पागमसाहित्य प्राचार्यों के लिए महान निधि थी। इसलिए वह 'गणिपिटक' कहलाया। उस गुम्फन के 1. आचार 2. सूत्रकृत 2. स्थान 4. समवाय 5. भगवती 6. ज्ञाताधर्मकथा 7. उपासकदशा 8. अन्तकृद्दशा 9. अनुत्तरोपपातिकदशा 10. प्रश्नव्याकरण 11. विपाक 12. दृष्टिवाद, ये मौलिक बारह भाग हुए, इसलिए उसका दूसरा नाम 'द्वादशांगी' है। इस तरह प्रणेता की दृष्टि से आगम-साहित्य 'अंगप्रविष्ट' और 'अनंगप्रविष्ट' इन दो भागों में विभक्त हुया / भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गणधरों ने जिस साहित्य की रचना की, वह 'अंगप्रविष्ट' है। स्थविरों ने भगवान महावीर की वाणी के आधार से जिस साहित्य की संरचना की वह 'अनंगप्रविष्ट' है। बारह अंगों के अतिरिक्त सारा पागमसाहित्य अनंगप्रविष्ट के अन्तर्गत पाता है। द्वादशांगी का आगम-साहित्य में प्रमुखतम स्थान रहा है। वह स्वतः प्रमाण है। द्वादशांगी के अतिरिक्त जो पागम हैं, वे परतःप्रमाण हैं , अर्थात् जो द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं वे प्रमाण हैं, शेष अप्रमाण हैं / राजप्रश्नीय : नामकरण इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनों का आधारभूत प्राचीनतम साहित्य प्रागम हैं और वह श्रुत भी है। राजप्रश्नीयसूत्र की परिगणना अंगबाह्य आगमों में की गई है। वह द्वितीय उपांग है। प्राचार्य देववाचक ने इसका नाम 'रायपसेणिय' दिया है।४ प्राचार्य मलय गिरि ने 'रायपसेणीअ' लिखा है। वे इसका संस्कृत रूप 'राजश्नीयम' करते है। सिद्धसेनगणी ने तत्वार्थवत्ति में 'राजप्रसेनकीय' लिखा है। तो मुनिचन्द्र सूरि ने 'राजप्रसेनजित' लिखा है। प्रक्रियाबाद : एक चिन्तन प्राचार्य मलयगिरि ने रायपसेणोय को सूत्रकृतांग का उपांग माना है। उनका मन्तव्य है कि सूत्रकृतांग में क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी प्रभति पाखण्डियों के तीन सौ तिरेसठ मत प्रतिपादित हैं, उनमें से अक्रियावादी मत को आधार बनाकर राजा प्रदेशी ने केशी श्रमण से प्रश्नोत्तर किये / सुत्रकृतांग१५ और भगवती में चार समवसरणों में एक प्रक्रियावादी बताया है। वहां पर प्रक्रियावादी का अर्थ अनात्मवादी-क्रिया के प्रभाव को मानने वाला, केवल चित्तशुद्धि को आवश्यक और क्रिया को अनावश्यक मानने वाला—किया है। स्थानांग सूत्र में१७ प्रक्रियावादी शब्द का प्रयोग अनात्मवादी और एकान्तवादी दोनों प्रथों में मिलता है / वहाँ प्रक्रियावादी के एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निमितवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी, असत 14. नन्दीसूत्र, सूत्र-८३ 15. सूत्रकृतांग-१।१२।१ 16, भगवती-३०११ 17. अट अकिरियावाई पण्णत्ता तंजहा--एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, णिम्मितवाई, सायवाई, समूच्छेदवाई, णित्तावाई, संतपरलोगवाई। स्थानांग-८।२२ [ 18 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org