Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे यावद्-गृहीतायुधपहरणः साई सम्परितः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन महाभटचटकररथपहकरन्दपरिक्षितः स्वाद् गृहाद निर्गच्छति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, सुखैः वासैः प्रातराशैः नाति. विकृष्टैः अन्तरावासैः वसन् वसन् केकयाद्धस्य जनपदस्य मध्यमध्येन यत्ररैव कुणाला जनपदो यत्रोव श्रीवस्ती नगरी तव उपागच्छति, श्रावस्त्यां चाउग्घट' आसरह दुरूहेइ) लेकर जहां वह चातुर्घट अश्वस्थ तैयार खडा था वहां पर आया-वहां आकरके फिर वह रथ पर चढा (बहुहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिखुडे सकोरिंटमल्लदामेण छत्तेण धरिजमाणेण महया भडचडगररहपगकरविंदपरिवरवत्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ) तब सन्नद्ध यावत् गृहीत आयुध पहरणवाले ऐसे अनेक पुरुषों से घिर गया, छत्रधारी द्वारा ध्रियमाण एवं कारण्टपुष्पमाला से विभूषित ऐसा छत्र उसके ऊपर तान दिया गया, महाभटौं के विस्तृत समूह के वृन्दने उसे आकर घेर लिया इस प्रकार की परिस्थिति से युक्त हुआ वह अपने घर से निकला (सेयवियाए णयरीए मज्झमझेण णिग्गच्छइ) और निकलकर वह श्वेतविका नगरी के बीचो. बीच से होकर चला-(सुहेहिं वासेहिं पयरासेहिं नाइविकिट्टेहिं अंतरावासेहि वसमाणे२ केइयद्धस्स जणवयस्स मज्झमझेण जेणेव कुणाला जणवए जेणेव सावस्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ) इस प्रकार घर से निकला हुआ वह सुखकर रागिनिवासों से, प्रातःकालिकलघु भोजनों से-कलेवाओं से, तथा अतिदूर के नहीं ऐसे अन्तरावासों से पडावों से-मध्याह्नकालिक विश्रामस्थानों से जगह२ ठहरता२ केकया जनपद के मध्य मध्य से होता हुआ सवार थयो. (बहुहि पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहि सद्धि संपरिखुडे सकोरिटमल्लदामेण छत्तेण धरेज्जमाणेण महया-भडचडगररहपगकरविंद परिक्खित्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छद) न्यारे सन्नद्ध यावत् मना डायामा આયુધ છે એવા અનેક પુરુષથી પરિવેષ્ટિત થઈને તથા કેરટ પુષ્પમાળાથી વિભૂ ષિત અને છત્રધારી વડે ધારણ કરેલું છત્ર તેની ઉપર તાણવામાં આવ્યું ત્યારે તેને મહાભોના વિશાલ સમૂહ વૃન્દ આવીને પ્રવિષ્ટ કરી લીધું. આમ તે પિતાના ઘરથી २वाना थयो. (सुहेहिं वासेहिं पयरासेहिं नाइ विकि?हिं अंतरावासेहिं वसमाणे २ के इयद्धस्स जणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव कुणाला जणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ) मा प्रमाणे धेरथी २वान थन ते सुभ४२ शत्रिनिवासी, प्रातः કાલિક લઘુભેજને, અતિ દૂર નહિ એટલે કે નજીકનજીકના અન્તરાવાસે (મુકામે) મધ્યાન્ડકાલિક વિશ્રામ અને સ્થાન રથાન પર મુકામ કરતે તે કેકયાદ્ધ જનપદની
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨