Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे
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चतुर्भिः स्थानैः चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म लभते श्रवणतायै, तयथा (१) आरामगत वा उद्यानगतं वा श्रमणं वा माहनं वा वन्दते नमस्यति यात्रत् पर्युपास्ते. अर्थात् यावत् पृच्छति, एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म लभते श्रवणतायै, एवं (२) उपाश्रयगतम् । (३) गोचरा प्रगत' श्रवण' वा प्रकार जो श्रमण अथवा माहन के साथ संगत हो जाता है वहां पर भी यह भ्रमण अथवा माहन मुझ पहिचान न ले इस हेतु से जो अपने आपको हाथसे वा वस्त्र से या छत्र से आवृत कर लेता है एवं उनसे प्रश्नादि कुछभी नहीं पूछता हैं हे चित्र ! इस चतुर्थ कारण से भी जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है. (४) इस प्रकार हे चित्र ! ये चार कारण हैं कि जिनकी वजह से यह जीव केवलो भगवान् द्वारा कहे गये धर्म को सुन नहीं पाता ( चउहि ठाणेहिं चित्ता ! जीवे केन लिपन्नत्त धम्मंलभइ सवणयाए ) हे चित्र ! चार कारणों से जीव केवलज्ञप्त धर्म को सुन सकता है (तं जहाआरामगयं वा उज्जाणगयं वा समणं वा माहणं वा बंदर, नमसइ जाव पज्जुवास) वे चार कारण इस प्रकार से हैं-आरामगत या उद्यानगत श्रमण को या माहण की जो वंदना करता है नमस्कार करता है, यावत् उनकी पर्युपासना करता है (अट्ठाई जाव पुच्छह) अर्थों को यावत् पूछता है (एएण ठाणेण चित्ता ! जीवे के वलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए) इस कारण को लेकर हे चित्र ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता (१) है, एवं (उबस्सगय० ) इसी प्रकार जो जीव उपाश्रयों में आये हुए श्रमण
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જે શ્રમણુ કે માહણુની સામે આવી જતાં તે શ્રમણુ કે માહણ તેને ઓળખી લે નહિ તે માટે જે પોતાની જાતને હાથવડે, કે વસ્ત્ર વડે કે છત્રવડે છૂપાવી લે છે અને તેમને પ્રશ્ન વગેરે કઇ પૂછતા નથી હું ચિત્ર ! આ ચેાથા કારણથી પણ જીવ કેન્નલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનુ શ્રવણુ કરી શકતા નથી.(૪) આ પ્રમાણે હું ચિત્ર! આ ચાર કારણેાને सीधे लब ठेवली भगवान वडे असा धर्मनुं श्रवायु पुरी शस्तो नथी. ( चउहिं ठाणेहि चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्मं लभइ सवणयाए) चित्र ! आर अरशोथी व द्वेषसि-प्रज्ञ ेत धर्मनुं श्रवष्णु उरी डे छे. (तं जहा--आरामगयं वा उज्जाणमयं वा समणं वा माहणं वा, वंद, नमसइ जात्र पज्जुवासइ) ते ચાર કારણે। આ પ્રમાણે છે.—આરામમાં પધારેલા કે ઉદ્યાનમાં પધારેલા શ્રમણને કે माहाराने ने वहन रे ६ नमस्कार मेरे छे, यावत् तेमनी पर्युपासना रे छे. (अट्ठाई जात्र पुच्छइ) अर्थाने यावतू पूछे छे. (एएण ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलि पन्नत्तं धम्मं लभइ सणयाए) भरने सीधे हे चित्र ! ते व ठेवसि अज्ञप्त
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨