Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे वदसि चित्र ! ?। हन्त स्वामिन् ! आधोऽवधिक्य खलु वदामि अन्नजीवि तत्व खलु वदामि । अभिगमनीयः खलु चित्र ! एष पुरुषः? हन्त ! स्वामिन ! अभिगमनीयः । अभिगच्छाम खलु चित्र !:वय एत पुरुषम् ? हन्त ! स्वा मिन् ! अभिगच्छामः ॥सू० १२७।।
टीका-'तएण से चित्त' इत्यादि-ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशि. राजमेवमवादीत्-हे स्वामिन् ! एषः अयं-पुरोवर्ती पापित्यीयः पार्श्वस्वामि शिष्यपरम्परासंजातः केशी नाम कुमारश्रमणः कुमारश्चासौ श्रमणश्च कुमारश्रमणः कुमारावस्थायामेव गृहीत संयमः, कीदृशोऽयमित्याह-जातिसंपन्नः यावत् यावच्छब्देन 'कुलसंपन्न.' इत्यादिविशेषणा नसर्वाणि पूर्वसूत्रोक्तानि संग्राह्याणि किंचित् ही न्यून है तथा ये प्रामुक एषणीय ही आहार लेते हैं सो क्या यह बात तुम सत्य कहते हो ? (हता सामी! आहोहियं णवयामि, अण्णजी. वियत्त क्यामि) हां, स्वामिन ! मैं सत्य कहता हूं कि इनको अवधिज्ञान परमावधि से किचित् न्यून है और ये प्रासुक एपणीय ही आहार लेते हैं। (अभिगमणिज्जे ण चित्ता! एस पुरिसे) तो हे चित्र ! यह पुरुष अभिगमनीय है. अर्थात् परिचय करने के योग्य है (हता सामी ! 'अभिगमणिज्जे) हां स्वामिन् । ये आपके लिये अभिगमनीय हैं अर्थात् परि चय करने के योग्य हैं। (अभिगच्छामो णचित्ता! अम्ह एवं पुरिस) तो हे चित्र ! मैं इनके साथ परिचय करलु ? (हता सामी ! अभिगच्छामो) हां स्वामिन् ! आप इनके साथ परिचय करें।
इसका टीकार्थ इस मूलार्थ के जैसा ही है। केवल विशेषता अण्णजीवियत्न' पद में है, इसका अर्थ तो मूला में लिखा जा चुका है1 ए ७२ छ तो शुावात साथी छे ? (हता सामी! आहोहियण वयामि अण्णजीवियत्तं ण क्यामी) i enभिन् ! साथी पात हु छ. मनु અવધિજ્ઞાન પરમાવધિ કરતાં થોડું કમ છે અને એ પ્રાસુક એષણીય આહાર अड ४२ छ. (अभिगमणिज्जे णचित्ता! एस पुरिसे) तो हे यित्र ! । पुरुष अभिगमनीय छ मेटाए! ४२वा योग्य छे. (हता सामी! अभिगमणिज्जे)
હાં સ્વામિન! એઓ આપના માટે અભિગમનીય છે એટલે કે ઓળખાણ કરવા યોગ્ય છે. (अभिगच्छामो ण चित्ता! अम्ह एयपुरिस)। मित्र! मेमनी सामाणमा ? (हता सामी अभिगच्छामी) । स्वामिनू तमे मेमनी साथे माणमा ४२N डा.
__सूत्रन टी भूमाथ प्रभारी छे. विशेषता त 'अण्णजीवियत्त' પદમાં છે. આને એક અર્થ તે મૂલાર્થમાં જ લખવામાં આવ્યું છે. અને બીજે
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨