Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
राजप्रश्नीयसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे श्वेतविकायां नगर्याग अधार्मिकः यावत् स्वकस्यापि च खलु जनपदस्य नो सम्यक करभरवृत्तिं पावर्त यत्, स खलु युष्माकं वक्तव्यतया सुबहु पाप कर्म कलिकलुष समय कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु नरकेषु नैरयिकतया उपपन्नः । तस्य खलु आर्यकस्य अहं नप्तकः अभवम्, इष्टः
सरीर) जीव शरीररूप नहीं है. शरीर जीवरूप नहीं हैं, (एवं खलु मम अजिए होत्था-इहेब जंबूदीवे दीये सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयस्स वि य जजणवयस्स नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ) तो इस बातको यदि मेरे पितामह आकर के पुष्ट करें-मुझ से कहे-तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास कर सकता हूं ऐसा संबंध यहां लगाना चाहिये, इसी बात को वह इस आगे के सुत्रपाठ से प्रदर्शित करता है-वह कहता है कि इसी जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित इस श्वेतांविका नगरी में मेरे पितामह-दादा थे. ये अधार्मिक थे, यावत् अपने प्रजाजनो का टेक्स लेकर भी उनका पोषण अच्छी तरह से नहीं करते थे. (सेणं तुम बत्तव्ययाए सुबहु पाव कम कलिकलुसं समजिणित्ता कालमासे काल किच्चा अण्ण यरेसु नरएमु णेरइयत्ताए उववण्णे) वे आप के कथनानुसार बहुत पापी थे. अतिमलिन बहत से पापकर्मों का उपार्जन करके बेकालमास में काल करके किसी एक नरक में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। (तस्स
नथी. शरीर ७१३५ नथी. (एवं खलु मम' अज्जिए होत्था इहेव जंबूदीवे दीवे सेय वियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयरस वि य णं जणक्यस्स नो सम्म करभवित्तिं पवत्तेइ) मा पाने भा॥ पितामह मावीन भने ४ तो આપના કથન પર વિશ્વાસ મૂકી શકું તેમ છું. એ સંબંધ અહીં લગાવવો જોઈએ. એજ વાતને તે આ સુત્રપાઠવડે પ્રદર્શિત કરતાં કહે છે કે આજ જંબૂઢીપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત તાંબિકા નગરીમાં મારા પિતામહ હતા. તેઓ અધાર્મિક હતા યાવત પિતાના પ્રજાજનો પાસેથી કર વસૂલ કરીને પણ તેમનું સરસ રીતે ભરણ પોષણ तेभ०/ २६ ४२ता न ता. (से ण तुम्भं वत्तव्ययाए सुबहु पावं कम्मं कलि. कलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए ૩વવો) આપશ્રીના કથન મુજબ તેઓ બહુ મોટા પાપી હતા. અતિમિલન ઘણાં પાપકર્મોનું ઉપાર્જન કરીને તેઓ કાલમાસમાં કોલ કરીને કોઈ એક નરકમાં નૈરચિકની पर्यायमा म यi छे. (तस्सणं अज्जगरस अहं गत्तुए होत्था, इ' कंते
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨