Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे
भदन्त ! एषा प्रज्ञात उपमा अनेन पुनः मे कारणेन नो उपागच्छति, अस्ति खलु भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावतू निपुणशिल्पोपगतः प्रभुः । पञ्च काण्डकं निस्रष्टुम् ? हन्त प्रभुः! यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषो बालः यावत् मन्दविज्ञानः प्रभुर्मवेत् पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुम, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां यथा-अन्यो जीवः तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! स
केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा (अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा) हे भदन्त ! यह जो आपने उपमा दी हैवह केवल बुद्धि विशेष से जन्य होने के कारण वास्तविक नहीं है (इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ) क्यों कि जो कारण मैं प्रदर्शित कर रहा हूं उससे मेरे हृदय में जीव और शरीर का भेद जमता नहीं है। (अस्थि णं भंते ! से जहा नामए केइ पुरिसे तरूणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंचकंडगं निसिरित्तए) वह कारण ऐसा है-हे भदन्त ! जैसे कोइ युवापुरूष हो यावत् वह निपुणशिल्पोपगत हो, तो वह पांचवाणों को एक ही साथ पांच लक्ष्योंको वेधने के लिये छोडने में समर्थ हो सकता है न ? (हंता पभू) केशीकुमार श्रमणने कहा--हां हो सकता है। (जइ णं भंते ! से चेव पुरिसे वाले जाव मंदविन्नाणे पभू होजा पंच कंडग निसिरित्तए) अब यदि वही पुरुषबाल, यावत् मन्दविज्ञान वाला अपनी अवष्यापन्न हुआ पांचकाण्डकको-पांचवाणों को छोड़ने के लिये समर्थ हो जावे तो मैं आपके वचनों को श्रद्धा के विषयभूत बनाउ और यह मानलू कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर रूप नहीं
अशी २०१ये उशीभाभराने प्रमाणे ४थु (अस्थिणं भंते ! एसा पण्णाभो उवमा) लत ! 24 प्रमाणे रे तमाये ७५मा माथी छे. ते मात्र मुद्धिविशेष न्य वाथी पास्तव नथी. (इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ) भ જે કારણ હું બતાવી રહ્યો છું તેથી મારા હૃદયમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાની વાત
मा नथी. (अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइपुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंच कंडगं निसिरित्तए ते ॥२५॥ २॥ प्रमाणे छ. है ભદૂત! જેમ કેઈ યુવક હોય યાવતુ તે નિપુણશિપગત હોય, તે તે પાંચ બાણને सेही साथे पांय सक्ष्यानु वेधन ४२वामी समर्थ थ६ शछ?(हंता पभू) शोभा२ अभो यूं , थ, श छे. (जइ णं भंते ! से चेव पुरिसे वाले जाव मंदविन्नाणे पभू होज्जा पंच कंडगं निसिरित्तए) ने ते युव माण, यावत् મંદવિજ્ઞાનવાળે પિતાની અવસ્થાપન્ન થયેલ પાંચકાંડને-પાંચ બાણને છોડવામાં સમર્થ થઈ જાય તે હું તમારા વચનોને શ્રદ્ધા ગ્ય માની શકું તેમ છું અને આ
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્રઃ ૦૨