Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुबोधिनी टीका सू. १५५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम्
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ऽयोहारकः । तदिच्छामि खलु देवानुप्रियाणामन्तिके केवलिप्रज्ञप्त धर्म निशमयितुम् । यथासुखं देवानुप्रियाः ! मा प्रतिबन्धं कुरुत्त धर्मकथा, यथा :चित्रस्य तथैव यावत् गृहिधर्म प्रतिपद्यते, यत्रैव श्वेतांबिका नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ सू० १५५॥ एवं वयासी) फिर उसने वंदना की यावत् केशिकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(णो खलु भंते। अहं पच्छाणुताविए भविस्साभि, जहा चेव से पुरिसे अपहारए) हे भदंत ! मैं उस अयोहारक-लोहवणिक पुरुष की तरह पश्चादनुतापित नहीं होऊंगा (तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) अतः मैं आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने का अभिलाषी हो रहा हूँ (अहा सुहं देवानुप्पिया ! मा पडिबध करेह) तब केशीकुमारश्रमण ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! आप को जिससे सुख ऊपजे एसा करो परन्तु इस विषय में विलम्ब करना उचित नहीं है। (धम्म कहा) प्रदेशी राजाको तब केशीकुमारश्रम ने मुनिधर्म और गृहस्थधर्म का ऊपदेश दिया, (जहा चित्तस्स तहेव गिहिधम्म पडिवजइ) यहां वह धर्मकथा १११वें सूत्र में जैसी कही गई है वैसी जाननी चाहिये तब प्रदेशी राजाने द्वादशविधरूप गृहीधर्म स्वीकार करलिया (जेणेव सेय विया णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इस प्रकार गृहिधर्म धारणकर वह प्रदेशी राजा जहां श्वेतांविका नगरीथी उस ओर चलदियासी भा२श्रमाने हा ४२ यावत् शिमा२ श्रमाने या प्रभा अयु-(णो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताविए भविस्सामि, जहा चेव से पुरिसे अयहारए) हे महत ! ई. ते अयो.२४ सोडवा ५३पनी म पश्चाहनुतोष २७ नहि. (तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) मेथी भाप हेवानुप्रिय पासेथी वलि प्रशस धर्मन सामवानी मलिदाषा रामु छु. (अहासहं देवानुप्पिया ! मा पडिबध करेइ) त्यारे भा२ श्रमणे तेने धुंड हेवानुप्रिय! તમને જેમાં આનંદ થાય તેમ કરો. પણ આ વિષયમાં વિલંબ ઉચિત નથી. (धम्मकहा) प्रदेश राने त्यारे उशी भा२ श्रम भुनिधर्म भने गृहस्थयमना अपहेश माथ्यो. (जहा चित्तस्स तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ) मही ते यथा ૧૧ મા સૂત્ર પ્રમાણે કહેવામાં આવી છે. ત્યારે પ્રદેશી રાજાએ દ્વાદશ વિધરૂપ pधना स्वी1२ यो. (जेणेव सेयंविया णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) આ પ્રમાણે ગૃહીધર્મ ધારણ કરીને તે પ્રદેશી રાજા જ્યાં તાંબિકા નગરી હતી તે તરફ રવાના થઈ ગયે.
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨