Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२०४
राजप्रश्नीयसूत्रे तव आर्यिकाऽभवम्, इहैव श्वेतविकायां नगर्या धार्मिकी यावत् वृत्ति कल्पयमाना श्रमणोपासिका यावद विहरामि । ततः खलु अहं सुबई पुण्यो. पचयं समय कालमासे काल' कृत्वा देवलोकेषु उपपन्ना, तत् त्वमपि नप्तृक ! भव धार्मिकः यावद् विहर, ततः खलु त्वमपि एवमेव सुबहु (तं जइ णं सा अजिया मम आगंतुं एवं वएजा) वह यदि आर्यिका (दादी) मुझ से आकरके ऐसा कहे (एवं खलु नत्तया! अहं तब अज्जिया होत्था, इहेव सेंय बियाए नयरीए धम्मिया जाव वितिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि) हे पौत्र! मैं तुम्हारी दादी थी. इसी श्वेतांबिका नगरी में मैं धार्मिक जीवन व्यतीत करती हुई यावत् अपनी जीवन यात्रा चलाती थी, जीव अजीव तत्व के स्वरूप को ज्ञाता थी, तथा तप और संयम से अपनी आत्माको भावित करती हुई अपने समय को व्यतीत किया करती थी. (तए णं अहं सुबहु पुष्णोवचय समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा, देवलोएसु उपवणा) इस तरह मैंने बहुत अधिक पुण्य का संचय किया और संचय करके जब में मरण के अवसर पर मरी तो देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई हूं (तं तुम पि नया! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि) इसलिये हे पौत्र ! तुम भी धार्मिक जीवन व्यतीत करो और धर्मानग आदि विशेषणों वाले बनो! तथा धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा करते हुए यावत् श्रमणोपासक Cen sal. (त जइ ण सा अज्जिया मम आगंतु एवं वएज्जा) ते माया (l) on भने मावीन माम ४ (एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्था, इहेव सेयावियाए नयरोए धम्मिया जाव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि) के पौत्र ! तभारी पितामही ती. मे શ્વેતાંબિકા નગરીમાં ધાર્મિક જીવન પસાર કરતી યાવત્ પિતાની જીવન યાત્રા ખેડતી હતી. હું શ્રમણોપાસિકા હતી, જીવ અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણતી હતી તેમજ તપ અને સંયમથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતી પિતાને સમય પસાર કરતી હતી. (तए ण अहं सुबहु पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता कालमासे काल किच्चा, देवलोएसु उववण्णा) 241 रीते में ध! पुश्यने। संयय ४या भने सयम ४रीने જયારે હું મરણ કાળે મરી ત્યારે દેવલેમાંથી કોઈ એક દેવલોકમાં દેવની પર્યાયથી सन्म पाभी छु. (तंतुमपि नया! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि) मेथी । હે પૌત્ર! તમે પણ ધાર્મિક જીવન પસાર કરે અને ધર્માનુગ વગેરે વિશેષણેથી સંપન્ન બને. તેમજ ધર્મથી જ પિતાની જીવનયાત્રા આગળ ધપાવતાં યાવત
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર: ૦૨