Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे अहं सुबहु पापं कर्म कालकलुषं समय नरकेषु उयपन्नः, तद् मा खलु नप्तृक ! त्वमपि भव अधार्मिकः यावद् नो सम्यक करभरपूर्ति प्रवर्तय, मा खलु त्वमपि एवमेव सुबहु पापकर्म यावद् उपपत्स्य से, तद् यदि खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत-ततः खलु अहं श्रद्दध्याम् प्रतीयाम् रोचपेयं, यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम, नो तत् जीवः स शरीरम, यस्मात् खलु स (तए णं अहं सुबहु पावं कम्मं कलिकलुसं समििणत्ता नरएमु उववण्णे) अतः मैने बहुत अधिक अतिकलुष पापो का संचय किया था-और इससे मैं नरको में से किसी एक नरक में नारक की पर्याय से उत्पन्न हुआ हूं (तमा णं नत्तुया ! तुमंपि भबाहि अधम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहिं) इसलिये हे पौत्र ! तुम अधार्मिक मत होना, और प्रजाजनों से प्राप्त टेक्स से उनके पोषण में असावधान मत रहना प्रत्युत उससे उनका पोषण अच्छी तरह से करना (मा णं तुम पि एवं चेव सुबह पावकम्मं जावं उववजिहिसि) नहीं तो तुम भी इसी तरह से बहुत अधिक पाप कर्म का यावत् उपाजन करोगे. इसलिये ऐसे पापकर्मो का उपार्जन मेरे द्वारा न हो इस तरह से (त जइ ण से अज्जए मम आगंतुं वएजा) यदि वे आर्यक आकरके मुझे समझा (तो ण अहं सद्दहेजा पत्तिएजा रोंएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्न सरीर णो त जीवो त सरीर) तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास करू' और उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाऊः, तथा अपनी रुचि के भितर उसे उतारु (जहा अन्नो जीवो, अन्नं सबह पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता नरएसु उवचषणे) येथी में ઘણા અતિકલુશ પાપને સંચય કર્યો છે અને એથી જ નરકોમાંથી કેઈએક નરકમાં ना२४ना पर्यायमा उत्पन्न थये। छु. (त मा णं न तुया ! तुमंपि भवाहि अधम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहि भाट र पौत्र ! तमे अधामि । નહિ અને પ્રજાજનો પાસેથી કર વસૂલ કરીને તેમના પિષણના કામમાં અસાવધાન हेश नहि पण तेभनु सरस रीते पोषण ४२. (मा ण तमं पि एच चेव सुबहु पावकम्म जाव उववजिहिसि) नाडत२ त ५ भारी म ॥ વધારે પાપકર્મનું યાવત્ ઉપાર્જન કરશે. આ પ્રમાણે આ જાતનાં પાપકર્મોનું ઉપાર્જન भा२१ वडे थाय नहि तेम (तजइ ण से अज्जए मम आगतुं वएज्जा ) तेथी ते माय भावाने भने समावे. (तो ण अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा, रोएज्जा, जहा अन्नो जीवो अन्न सरीर णो त जीवो त सरीरं) तो ईमापना २५ કથન પર વિશ્વાસ કરી શકું અને તેને મારી પ્રતીતિ તેમજ રુચિને વિષય બનાવી
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨