Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे
खलु भो ! मुण्ड पर्युपासते, मूढाः खलु भो ! मूढ पर्युपासते, अपांण्डताः खलु भो ! अपण्डित पर्युपासते, निर्विज्ञानाः खलु भो ! निर्विज्ञानं पर्यु पासते, स कीदृशः खलु एष पुरुषो जडो मुण्डो मूढोऽपण्डितो निर्विज्ञान: श्रिया हिया उपगतः उत्तप्तशरीरः, एष खलु पुरुषः कमाहारमहारयति ? जाव समुपज्जित्था ) कि जिस और एक बहुत बडी परिषदा के बीच में बैठे हुए केशीकुमारश्रमण जोर २ से धर्म का व्याख्यान कर रहे थे. इस प्रकार से उन्हें देखकर उसको इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ (जड्डा खलु भो ! जड पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो मुंड पज्जुबास ति) अरे ! जो जन जड होते हैं वे जडकी सेवा करते हैं और जो जन मुंड होते हैं, वे मुण्ड की सेवा करते हैं (मूढा खलु भो मूढ पज्जुवास ति) तथा जो जन मूढ होते हैं, वे मूढ की सेवा करते हैं । ( अपंडिया खलु भो अपंडियां पज्जुवास ति) जो अपण्डित होते है वे अपण्डित जन की सेवा करते हैं, (निविष्णाणा खलु भो निव्विण्णा पज्जुवास ति) जो विशिष्टज्ञान से रहित होते हैं, वे विशिष्टज्ञान से रहित की सेवा करते हैं । ( से केस एस पुरिसे जडे, मुडे, मुढे, अपंडिय निर्विण्णाणे सिरीए हिरीए अवगए उत्तप्पसरी रे) परन्तु यह कैसा पुरुष है जो जड, मुंड, मूड, अपण्डित, निर्विज्ञान होता हुआ भी श्री से और ही से युक्त है ( उत्तप्पसरीरे) शरीर की कान्ति से संपन्न है। (एस गं पुरिसे किमाहारमाहारेs) यह पुरुष क्या किस प्रकार का आहार करता है ? समुपज्जित्था ) ? तर मे विशांण परिषद्वानी वय्ये मेठेला शीकुमार श्रभाणु અહુ મોટા સ્વરે ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરી રહ્યા હતા. આ પ્રમાણે તેમને જોઈને તેને खाँ जतनो साध्यात्मिक यावत् मनोगत संदिप उत्पन्न थयो (जडा खलु भो ! जड्ड पज्जुवास ंति, मुंडा खलु भो मुड पज्जुवास ति) अरे ! ? लो!! જડ હોય છે, તેઓ જડને સેવે છે અને જે લાકે મુડ હોય છે. તેએ મુંડની સેવા अरे छे. ( मूढा खलु भो मूढं पज्जुवास ति) तेमन ने बोओ भूढ होय छे तेथे भूढनी सेवा रे छे. (अपंडिया खलु भो अप'डिय पंज्जुवास ति) ঈथे। अখ: डित होय छे तेयो अथंडिताने सेवे छे. (निविष्णाणा खलु भो ! निर्विण्णाण पज्जुवासं ति) भेो विशिष्ट ज्ञानथी रहित छे, ते विशिष्ट ज्ञान रहितने सेवे छे. (से केस एस पुरिसे जड्ड े, मुडे, मूढे, अपडिए निविष्णाणे सिरोए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे) पशु सा देवो यु३ष छे ने ४९, भुंडं, भूढ, पंडित, निर्विज्ञान होवा छतां श्री तेभन ही थी युक्त छे. (उत्तप्पसरी रे) शरीरनी अंतिथी स ंपन्न छे. ( एस पुरिसे किमाहारमाहारेइ ) मा ५३ष ४४६
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શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨