Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[२९] गुण की दृष्टि से जीव एक है। व्यवहार नय की दृष्टि से प्रत्येक जीव अलग-अलग है। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से वह दो भागों में विभक्त है। इस तरह स्थानाङ्ग सूत्र में संख्या की दृष्टि से जीव, अजीव, प्रभृति द्रव्यों की स्थापना की गयी है। पर्याय की दृष्टि से एक तत्त्व अनन्त भागों में विभक्त होता है और द्रव्य की दृष्टि से वे अनन्त भाग एक तत्त्व में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार भेद और अभेद की दृष्टि से व्याख्या स्थानाङ्ग में है।
स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग, इन दोनों आगमों में विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गई है। संख्या के आधार पर विषय का संकलन-आकलन किया गया है। एक विषय की दूसरे विषय के साथ इसमें सम्बन्ध की अन्वेषणा नहीं की जा सकती। जीव, पुद्गल, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय बिना किसी क्रम के इसमें संकलित किये गये हैं। प्रत्येक विषय पर विस्तार से चिन्तन न कर संख्या की दृष्टि से आकलन किया गया है। प्रस्तुत आगम में अनेक ऐतिहासिक सत्य-कथ्य रहे हए हैं। यह एक प्रकार से कोश की शैली में ग्रथित आगम है, जो स्मरण करने की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। जिस युग में आगम-लेखन की परम्परा नहीं थी, संभवतः उस समय कण्ठस्थ रखने की सुविधा के लिए यह शैली अपनाई गयी हो। यह शैली जैन परम्परा के आगमों में ही नहीं वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है। महाभारत के वचनपर्व, अध्याय एक सौ चौतीस में भी इसी शैली में विचार प्रस्तुत किये गये हैं। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपञति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में यही शैली दृष्टि-गोचर होती है।
जैन आगम साहित्य में तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं। उसमें श्रुतस्थविर के लिए 'ठाण-समवायधरे' यह विशेषण आया है। इस विशेषण से यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत आगम का कितना अधिक महत्त्व रहा है। आचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्ग की वाचना कब लेनी चाहिए, इस सम्बन्ध में लिखा है कि दीक्षा-पर्याय की दृष्टि से आठवें वर्ष में स्थानाङ्ग की वाचना देनी चाहिए। यदि आठवें वर्ष से पहले कोई वाचना देता है तो उसे आज्ञा भंग आदि दोष लगते हैं।९२
व्यवहारसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग और समवायांग के ज्ञाता को ही आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इसलिये इस अंग का कितना गहरा महत्त्व रहा हुआ है, यह इस विधान से स्पष्ट है।३
समवायांग और नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग का परिचय दिया गया है। नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग की जो विषयसूची आई है, वह समवायाङ्ग की अपेक्षा संक्षिप्त है। समवायाङ्ग अङ्ग होने के कारण नन्दीसूत्र से बहुत प्राचीन है, समवायाङ्ग की अपेक्षा नन्दीसूत्र में विषयसूची संक्षिप्त क्यों हुई ? यह आगम-मर्मज्ञों के लिये चिन्तनीय प्रश्न है।
समवायाङ्ग के अनुसार स्थानाङ्ग की विषयसूची इस प्रकार है(१) स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त और स्व-पर-सिद्धान्त का वर्णन। (२) जीव, अजीव और जीवाजीव का कथन। (३) लोक, अलोक और लोकालोक का कथन। (४) द्रव्य के गुण और विभिन्न क्षेत्रकालवर्ती पर्यायों पर चिन्तन।
(५) पर्वत, पानी, समुद्र, देव, देवों के प्रकार, पुरुषों के विभिन्न प्रकार, स्वरूप, गोत्र, नदियों, निधियों और ज्योतिष्क देवों की विविध गतियों का वर्णन।
(६) एक प्रकार, दो प्रकार, यावत् दस प्रकार के लोक में रहने वाले जीवों और पुद्गलों का निरूपण किया गया है।
नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग की विषयसूची इस प्रकार है-प्रारम्भ में तीन नम्बर तक समवायाङ्ग की तरह ही विषय का निरूपण है किन्तु व्युत्क्रम से है। चतुर्थ और पांचवें नम्बर की सूची बहुत ही संक्षेप में है। जैसे टङ्क, कूट, शैल, शिखरी,
९१. ववहारसुत्तं, सूत्र १८, पृ. १७५—मुनि कन्हैयालाल 'कमल' ९२. ठाणं-समवाओऽवि य अंगे ते अट्ठवासस्प-अन्यथा दानेऽस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाः ९३. ठाण-समवायधरे कप्पइ आयरित्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए।
स्थानाङ्ग टीका -व्यवहारसूत्र, उ. ३, सू. ६८
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