Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम श्रुतस्कन्ध : उपोद्घात
सूत्रकृतांगसूत्र की पृष्ठभूमि इस दुःखमय संसार में विविध गतियों, योनियों में एवं विविध कायों को धारण करके अनादि-काल से परिभ्रमण करते हुए जीव को आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त नहीं हुआ। अब असीम पुण्यराशि संचित होने के कारण उसे अतिदुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ । पाँचों इन्द्रियाँ स्वस्थ और पूर्ण मिलीं, स्वस्थ एवं सशक्त शरीर मिला। उत्तम आर्यक्षेत्र एवं उत्तम कुल में जन्म हुआ। परिपाश्विक वातावरण भी अच्छा मिला । दीर्घ आयुष्य की भी संभावना प्रतीत हुई । ऐसी उत्तम सामग्री से युक्त व्यक्ति को पूर्वजन्म के संस्कार एवं ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमवश ऐसी जिज्ञासा होती है कि जब अर्हन्त भगवान तथा सिद्ध परमात्मा और मेरी आत्मा में निश्चयनय की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, तब अर्हन्त भगवान तो चार घनघाती कर्मों से सर्वथा रहित हो गए तथा सिद्ध परमात्मा तो आठों ही कर्मों से सर्वथा मुक्त, सिद्ध, बुद्ध होकर कृतकृत्य हो गए और मैं अभी आठों ही कर्मों के चक्कर में पड़ा हूँ। यह ठीक है, कि मुझे शुभ कर्म के बल से मनुष्य जन्म, उत्तम क्षेत्र, श्रेष्ठ कुल, इन्द्रियों की परिपूर्णता, स्वस्थ शरीर, दीर्घायुष्य आदि संयोग मिले, लेकिन मेरी आत्मा तो अभी तक सिद्ध परमात्मा एवं अर्हन्त भगवान के क्षेत्र से करोड़ों कोस दूर है, काल से भी हजारों वर्ष दूर हैं, द्रव्य से भी मेरी पात्रता, योग्यता और उनकी आत्मा की योग्यता एवं क्षमता में लाखों गुना अन्तर है और भाव से भी तो उनकी आत्मा परम क्षायिक भाव में है, अनन्त चतुष्टय से युक्त है और मेरी आत्मा अभी उपशम तथा क्षयोपशम भाव में ही चक्कर लगा रही है । मेरी योग्यता और क्षमता क्यों नहीं बढ़ पाती ? मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे यह अन्त र दूर हो ? अपने जीवन में मैं किस प्रकार की साधना करूं, जिससे इस द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दूरी को समाप्त कर सकूँ ? क्या मेरा जन्म यों ही सांसारिक इन्द्रिय जनित क्षणिक वैषयिक सुखों में लिप्त होकर पुनः चौरासी लक्ष जीवयोनियों में भटकने के लिए है या इन सांसारिक सुखों से निलिप्त होकर अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर के द्वारा वीतरागभाषित शुद्ध धर्म का पालन करके आत्मा को कर्मचक्र से पृथक् करने के लिए है ?
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