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रत्नत्रय की साधना | ३७ मैं आपसे यह कह रहा था, कि शक्तिरूप में आत्मा अनन्त है, अगाध है और अपार है । उस शक्ति की अभिव्यक्ति करने के लिए ही, साधक के लिए साधना का विधान किया गया है। जैसे अणरूप बीज में विराट वृक्ष होने की शक्ति है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति तभी होती है, जबकि उसे अनुकूल पानी, प्रकाश और पवन की उपलब्धि होती है । साधना के क्षेत्र में भी यही सत्य है और यही तथ्य है, कि आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वार्य होने पर भी वर्तमान में उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो रही है । इस शक्ति की अभिव्यक्ति को ही मैं साधना कहता हूँ। आत्मा का लक्ष्य अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख प्राप्त करना है, किन्तु वह कैसे हो? इसके लिए जैन दर्शन में रत्न-त्रयी की साधना का विधान किया है। रत्नत्रयी का अर्थ है-सम्यग् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । वस्तुतः यही मोक्ष-मार्ग है, यही मोक्ष साधना है और यही मोक्ष का उपाय है । रत्न-त्रयी में आत्मा के समग्र अध्यात्म-गुणों का कथन हो जाता है। अतीत काल के तीर्थकरों ने, गणधरों ने और श्रुतधर आचार्यों ने इसी रत्न-त्रयी का साध्य की सिद्धि के लिए उपदेश दिया है और अनन्त अनागत काल में भी इसी का उपदेश दिया जाता रहेगा । जैन-दर्शन की साधना समत्व-योग की साधना है, सामायिक की साधना है एवं समभाव की साधना है। साधक चाहे गृहस्थ हो अथवा साधू हो, उसकी साधना का एकमात्र लक्ष्य यही है, कि वह बिषमता से समता की ओर अग्रसर हो। विषमभाव से निकलकर समभाव में रमण करे। इस समत्व योग में कौन कितना और कब तक रमण कर सकता है, यह प्रश्न अलग है और वह साधक की अन्तःशक्ति पर निर्भर करता है । परन्तु निश्चय ही अबल और सबल दोनों ही प्रकार के साधकों के जीवन का लक्ष्य आत्मा के निज-गुणस्वरूप अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख को प्राप्त करने का है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अथवा साध्य की सिद्धि के लिए, जैन दर्शन ने रत्न-त्रयी का विधान किया है । रत्न-त्रयी का नाम ही मोक्षमार्ग है। मार्ग का अर्थ यहाँ पर पथ एव रास्ता नहीं है, बल्कि, मार्ग का अर्थ है-साधन एवं उपाय । मोक्ष का मार्ग कहीं बाहर में नहीं है, वह साधक के अन्तर् चैतन्य में ही है, उसकी अन्तरात्मा में ही है । साधक को जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से पाना है।
विविध शास्त्र के अध्ययन और चिन्तन से यह ज्ञात होता है, कि
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