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रत्नत्रय की साधना
साधक, साधन द्वारा ही साध्य को प्राप्त कर सकता है। बिना साधन के साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । कार्य छोटा हो या बड़ा, उसकी सफलता तभी होती है, जबकि उसके करने की विधि का परिज्ञान हो जाए । यह देखा जाता है कि प्रत्येक कार्य करने से पहले उसके साधन और उपायों पर विचार और चिन्तन किया जाता है । जीवन को किसी भी योजना को फलान्वित करने के लिए, उसे लागू करने के नियम और उपनियमों का विचार अवश्य किया जाता है । जीवन के सामान्य धरातल पर भी जब कार्य की सिद्धि के लिए उसके कारण, उपाय और साधनों पर विचार किया जाता है, तब मोक्ष जैसी विशाल, विराट और उदात्त सिद्धि के लिए, उसके साधन और उपायों पर अवश्य ही गम्भीरतर विचार होना चाहिए ।
वर्तमान में हम जो कुछ हैं और जैसे हैं, वैसा रहना ही हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारे जीवन का परिलक्ष्य यह है कि हम अणु से महान बनें, क्षुद्र से विराट बनें और ससीम से असीम बनें । आत्मा ज्ञान रूप से अनन्त है, किन्तु वर्तमान में उसके ज्ञान पर आवरण होने के कारण वह अल्पज्ञ बना हुआ है । आत्मा में अनन्त शक्ति है, पर वर्तमान में उसकी वीर्य-शक्ति पर आवरण होने के कारण वह दुर्बल प्रतीत होता है । आत्मा में अनन्त सुख है, किन्तु वर्तमान विपरीत परिणति के कारण इसकी उचित अभिव्यक्ति नहीं होने पाती है, फलतः वह खिन्न और विपन्न बना हुआ है ।
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