________________
( ३५ )
इसकी दूसरी गाथा - आवासयणिज्जुत्ती.. है— आवश्यक निर्युक्ति है, ताहि क्रम परिपाटी है आचार्यनि की परम्परा करि चल्या आया, पूर्व आया तिस ही क्रमकरि पूर्व आगम का अनुक्रम कहूंगा ।
.का अनुवाद इस प्रकार । ताका नहीं उल्लंघन करि जैसे आचार्यनि के प्रवाहकरि जैसे नांही छोड़िकरि संक्षेपथकी मैं
प्रत्येक अधिकार के अन्त में वचनिका लिखने के आधार और गाथा संख्या की सूचना इस प्रकार प्रस्तुत की है - " असे आचार्य वट्टकेर स्वामी विरचित मूलाचार नाम प्राकृत ग्रन्थ की आचार्य वसुनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित आचारवृत्ति नाम संस्कृत टीका के अनुसार यह देश भाषामय वचनिका विषै आवश्यक निर्युक्ति है नाम जाका, औसा सातवां अधिकार समाप्त भया । इहाँ पर्यन्त (प्रथम से सातवें अधिकार तक की ) गाथासूत्र छह सौ निवैं ( ६९०) भये, असें जाननां ।”
मूलाचार भाषा - वचनिका की अन्त्य - प्रशस्ति से यह भी स्पष्ट हुआ कि पं. नन्दलाल जी छावड़ा इसकी भाषा- वचनिका षष्ठ पिण्डशुद्धि अधिकार की १५वीं गाथा तक ही लिख पाये थे कि अचानक इनका स्वर्गवास हो गया । तब इस अधूरी वचनिका को इन्हीं के मित्र पं. ऋषभदास जी निगोत्या ने अपने स्नेही मित्रों के सहयोग से पूरा किया। इस सबका उल्लेख इन्होंने ग्रन्थ की अन्तप्रशस्ति में किया है । इस आधार पर यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत आवश्यक निर्युक्ति (सप्तम षडावश्यकाधिकार) और इसके आगे की भाषा- वचनिका के लेखक पं० ऋषभदास जी निगोत्या, जयपुर ही हैं ।
इस वचनिका के आधार पर जहाँ हम मूलाचार और इसकी संस्कृत टीका के हार्द को समझने में सरलता हो जाती है, वहीं हम इसके आधार पर हिन्दी भाषा और इसकी गद्य-विधा के विकास को समझने में सक्षम होते हैं । ७. मूलाचार हिन्दी टीका
Jain Education International
मूलाचार की संस्कृत आचारवृत्ति के आधार पर विशेषार्थ सहित सरल और शुद्ध हिन्दी अनुवाद का कठिन कार्य पूज्यनीया गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीमाताजी ने किया है; जिसे भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने क्रमशः सन् १९८४ एवं १९८६ में दो भागों में प्रकाशित किया है। यह काफी लोकप्रिय हिन्दी टीका ग्रन्थ है । प्रस्तुत आवश्यक नियुक्ति के अनुवाद कार्य में मूलाचार भाषावचनिका के साथ-साथ इस हिन्दी टीका का भी साभार विशेष सहयोग लिया गया है ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org