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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
सर्वत्र आज्ञाफल तथा दाक्षिण्य अनुकूलता मिलती है । अर्थात् जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करें, वैसा अबाधित सौभाग्य और जनता की अनुकूल भावना को प्राप्त होता है।
वंदनीय कौन ? अनादृत, स्तब्ध आदि बत्तीस दोषों से, रहित वन्दना ही शुद्ध वन्दना है तथा यही विपुल निर्जरा का कारण भी है । मूलाचारकार के अनुसार चारित्रादि अनुष्ठान, ध्यान, अध्ययन में तत्पर क्षमादि गुण तथा महाव्रतधारी, असंयम से ग्लानि करने वाले और धैर्यवान् श्रमण वन्दना के योग्य होते हैं । ऐसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ मुनि, आचार्यादि वन्दनीय होते हैं ।
वन्दना की विधि-सर्वप्रथम जिस आचार्यादि ज्येष्ठ श्रमणों की वन्दना की जाती है तो उनमें तथा वन्दनकर्ता के मध्य एक हाथ अन्तराल रखे । फिर अपने शरीरादि के स्पर्श से देव या गुरु को बाधा (स्पर्श) न करते हुए अपने कटि आदि अंगों का पिच्छिका से प्रतिलेखन करें । तब वन्दना की इस प्रकार याचना (विज्ञापना) करें कि “मैं वन्दना करता हूँ" । उनकी स्वीकृति लेकर इच्छाकार पूर्वक वन्दना करना चाहिए । अवन्दनीय की वन्दना का निषेध
अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दना करने वाले को न तो कर्म की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही होती है । बल्कि असंयम आदि दोषों के समर्थन द्वारा कर्मबन्ध ही होता है । इतना ही नहीं अपितु गुणी पुरुषों के द्वारा अवन्दनीय अपनी वन्दना कराने रूप असंयम की वृद्धि द्वारा अवन्दनीय की आत्मा का अध:पतन होता है ।
वन्दना के भेद-निक्षेप दृष्टि से इसके निम्नलिखित छह भेद हैं । १-जाति, द्रव्य, क्रिया निरपेक्ष वन्दना की शब्द-संज्ञा नाम वन्दना है । अथवा एक तीर्थंकर, सिद्ध और आचार्यादि के नाम का उच्चारण नाम वन्दना है । २-वन्दना योग्य महापुरुष की प्रतिकृति अथवा एक तीर्थंकर, आचार्य आदि के प्रतिबिम्ब का स्तवन करना स्थापना वन्दना है । ३-इसी तरह एक तीर्थंकर, सिद्ध तथा आचार्यादि के शरीर की वन्दना करना द्रव्यवन्दना है । द्रव्य सामायिक
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उत्तराध्ययन २९/११ ।
२. मूलाचार ७/९८ । हत्यंतरेण बाधे संफासमप्पज्जणं पउज्जंतो। जाएंतो वेदणयं इच्छाकारं कुणदि भिक्खू । मूलाचार, सवृत्ति ७/११२ आवश्यक नियुक्ति ११०८ ।। ५. आवश्यक नियुक्ति १११० । मूलाचार वृत्तिसहित ७/७८ ।
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