Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 233
________________ १६८ जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन (६) कृतिकर्म कितनी अवनतियों से करे ? – अवनति से तात्पर्य है भूमि पर बैठकर भूमिस्पर्श-पूर्वक नमन । क्रोध, मान, माया, लोभ एवं परिग्रह इनसे रहित मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक कृतिकर्म में दो अवनति करना चाहिए 12. (७) कितने बार शिरोनति (मस्तक पर हाथ जोड़कर) कृतिकर्म करे ? – अवनति की तरह. मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक चार बार सिर से नमन ( चतुः शिरोनति) करके कृतिकर्म करना चाहिए । अर्थात् सामायिक के प्रारम्भ और अन्त में तथा थोस्सामि दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में— इस तरह चार बार शिरोनति विधि की जाती है । (८) कृतिकर्म कितने आवर्ती से शुद्ध होता है ? – प्रशस्त योग को एक अवस्था से हटाकर दूसरी अवस्था में ले जाने का नाम परावर्तन या आवर्त है । मन, वचन और काय की अपेक्षा आवर्त के तीन भेद । किन्तु इसके बारह भेद इस प्रकार हैं—सामायिक के प्रारम्भ में तीन और अन्त में तीन, चतुर्विंशतिस्तव के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन - कुल मिलाकर बारहं आवर्तों से कृतिकर्म शुद्ध होता है । अतः जो मुमुक्षु साधु वंदना के लिए उद्यत हैं, उन्हें ये बारह आवर्त करना चाहिए । - (९) कितने दोष रहित कृतिकर्म करे ? – निम्नलिखित बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ।' इन्हें ही वन्दना के वन्दना आवश्यक की शुद्धि के बत्तीस दोष कहते हैं । अतः . लिए इन बत्तीस दोषों का परिहार आवश्यक है— कृतिकर्म (वन्दना) के बत्तीस दोष १. अनादृत — निरादर पूर्वक या अल्पभाव में समस्त क्रिया-कर्म करना । २. स्तब्ध — विद्या, जाति आदि आठ मदों से गर्व पूर्वक वन्दना करना । ३. प्रविष्ट—पंचपरमेष्ठी के अति सन्निकट होकर या असंतुष्टतापूर्वक वन्दना करना । ४. परिपीडित – दोनों हाथों से दोनों जंघाओं या घुटनों के स्पर्शपूर्वक वन्दना करना । ५. दोलायित – दोलायमान युक्त होकर अर्थात् समस्त शरीर हिलाते हुए वन्दना करना । ६. अंकुशित - हाथ के अंगूठे को अंकुश की तरह ललाट में लगाकर वन्दना करना । ७. कच्छप रिंगित - कछुए की तरह १. ३. ४. ५. मूलाचार वृत्ति ७ / १०४ । २. चतुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे - वही ७ / १०४ । मूलाचार वृत्ति ७/१०४, अनगार धर्मामृत ८/८८-८९ । मूलाचार, वृत्ति सहित ७ / १०६-११० । Jain Education International मूलाचार ७/१०४ | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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