Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 260
________________ आवश्यकनियुक्तिः १९५ कायोत्सर्ग करने का विधान है। फिर बाहयुगल नीचे करके दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद एवं निश्चल खड़े होकर मन से शरीर के प्रति 'ममेदं' बुद्धि की निवृत्ति कर लेना चाहिए । कायोत्सर्ग में स्थित होकर श्रमण को दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करना चाहिए। साथ ही ईर्यापथ के अतिचारों का क्षय एवं अन्य नियमों को पूर्ण करके धर्म और शुक्लध्यान का चिन्तन करना चाहिए ।५ कायोत्सर्ग में स्थित होने पर देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा किये गये किसी भी प्रकार के उपसर्ग को सहन करना चाहिए । ऐसे ही धीर श्रमण भक्तपान, ग्रामान्तर-गमन, चातुर्मासिक, वार्षिक और औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण आदि विषयों के वेत्ता, माया-प्रपंच रहित, अनेक विशेषताओं युक्त, स्वशक्ति एवं आयु के अनुसार दुःख-क्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं । बल और वीर्य के आश्रय से क्षेत्र-बल, कायबल तथा शरीर संहनन की अपेक्षा से निर्दोष कायोत्सर्ग करने का विधान भी है । कायोत्सर्ग में चिन्तनीय शुभ-मनःसंकल्प-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, संयम, व्युत्सर्ग, प्रत्याख्यान ग्रहण तथा करण अर्थात् तेरह क्रियायें, (इनमें पंचनमस्कार, छह आवश्यक एवं आसिका और निषीधिका), प्रणिधान, समिति पालन के भाव, विद्या, आचरण, महाव्रत, समाधि, गुणों में आदरभाव, ब्रह्मचर्य पालन, षट्काय के जीवों की रक्षा के भाव, इन्द्रियनिग्रह, क्षमा, मार्दव, आर्जव, विनय, तत्त्व-श्रद्धान और मुक्ति के परिणाम-इन सभी विषयों में ये शुभ-मन:संकल्प आदि कायोत्सर्ग के समय अवश्य ही धारण करना चाहिए । कायोत्सर्ग में ये शुभ-मन:संकल्प सभी के लिए महार्थ अर्थात् कर्मक्षय के • हेतुभूत, प्रशस्त, विश्वस्त, सम्यक्-ध्यान-रूप तथा जिनशासन सम्मत है ।' कायोत्सर्ग में त्याज्य अशुभ संकल्प-परिवार, ऋद्धि, सत्कार, पूजन, अशन, पान, लयण (उत्कीर्ण पर्वतीय गुफा आदि), शयन, आसन, भक्तपान, १. भगवती आराधना गाथा ५५० । २. मूलाचार ७/१५३, भगवती आराधना वि०टी० ५०९ । ३. भगवती आराधना विजयोदया टीका ५०९, पृ० ७२९ । ४. मूलाचार ७/१६८ । ५. मूलाचार ७/१६७ । ६. वही ७/१२८, आवश्यक नियुक्ति दीपिका गाथा १५४४ । ७. . मूलाचार ७/१६६,१७४ । ८. वही ७/१७० । ९. मूलाचार ७/१८१-१८३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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