Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 265
________________ २०० जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन कायोत्सर्ग में निषिद्ध बत्तीस दोष' १. घोटक दोष – कायोत्सर्ग करते समय घोड़े के समान एक पैर उठाकर अथवा झुककर खड़े होना । २. लतादोष - वायु से कम्पित लता के सदृश कायोत्सर्ग के समय चंचल रहना या हिलना । ३. स्तम्भ दोष – स्तम्भ (खम्भे ) आदि का आश्रय लेकर या स्तम्भ के सदृश शून्य - हृदय होना । ४. कुड्यदोष - दीवार आदि के आश्रित खड़े होकर कायोत्सर्ग करना । ५. मालादोष - मस्तक के ऊपर माला या रस्सी आदि का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना । ६. शबरवधू (गुह्यगूहन) दोष - भील की वधू के सदृश जंघाओं से जंघा भाग सटाकर अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढककर कायोत्सर्ग करना । ७. निगल दोष-पैरों में बेड़ी बाँधे हुए मनुष्य के सदृश पैरों में अधिक अन्तर रखकर या टेढ़े चरण रखकर खड़े होना । ८. लम्बोत्तर दोष – नाभि से ऊपर का भाग अधिक झुकाना या ऊँचा करना । ९. स्तनदृष्टि दोष – अपने स्तन की ओर दृष्टि रखना । १०. वायस दोष — कौवे की तरह इतस्ततः चंचल नेत्रों से दृष्टि फेंकना । ११. खलीन दोष - खलीन - लगाम से पीड़ित अश्व की तरह मुख को हिलाना या दाँतों को चबाना । १२. युग (युगकन्धर) दोष - जुआ से पीड़ित बैल की तरह कन्धा झुकाना । १३. कपित्थ दोष - हाथ में कैंथ फल लिए हुए व्यक्ति की तरह मुट्ठी बाँधना । १४. शिरःप्रकंपन दोष – सिर चलाते हुए कायोत्सर्ग करना । १५. मूक दोष – मूक मनुष्य की तरह मुख, नासिका आदि से संकेत करना । १६. अंगुलि दोष – अंगुलि चलाना या उनकी गणना करना । १७. भ्रूविकार दोष – भौंहों को ऊपर, नीचे या तिरछी करना । १८. वारुणीपायी दोष – मद्यपी की तरह यहाँ-वहाँ झूमते हुए खड़े होना । १९. दिगवलोकन दोष- सभी दिशाओं में देखना । २०. ग्रीवोन्नमन प्रणमन दोष – ग्रीवा अधिक नीचे या ऊपर करना । २१. निष्ठीवन दोष – कायोत्सर्ग करते समय थूकना, खकारना आदि । २२. अंगामर्श दोष – अपने अंगों को स्पर्श करना । इस प्रकार उपर्युक्त २२ दोष तथा दस दिशाओं के दस दोष । यथा - १. पूर्वदिशावलोकन दोष, २. आग्नेयदिशा०, ३. दक्षिणदिशा, ४. नैऋत्यदिशा०, ५. पश्चिमदिशा०, ६. वायव्यदिशा०, ७. उत्तरदिशा०, ८. ईशानदिशा०, ९. उर्ध्वदिशा ० और १०. अधोदिशावलोकन दोष । मूलाचार ७/१७१-१७३, भगवती आराधना वि०टी० ११६, पृ० २७९, अनगार धर्मामृत ८/११२-१२१, चारित्रसार १५६/२ | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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