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कायोत्सर्ग के ये बत्तीस दोष हैं । इनसे रहित कायोत्सर्ग करने पर ही शुद्ध कायोत्सर्ग आवश्यक सिद्ध होता है ।
निष्कर्ष :
आवश्यकनिर्युक्तिः
उपर्युक्त छह आवश्यक श्रमण जीवन के आचार विषयक दैनिक कार्यक्रमों के आवश्यक अंग हैं । सामायिक आदि छह आवश्यकों का यह क्रम सहज है तथा कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर आधारित है । इनके निर्दोष पालन से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । ये ज्ञान और क्रियामय हैं, अतः इनका आचरण मोक्ष सिद्धिदायक है । जो इनका पालन नियम से करता है वह निश्चय ही मुक्ति को प्राप्त होता है, पर जो सभी आवश्यकों का निःशेष पालन न करके यथाशक्ति पालन करते हैं उसे भी आवासक अर्थात् स्वर्गादिक आवास की प्राप्ति होती है । वस्तुतः आवश्यक क्रिया आत्मा को प्राप्त भावशुद्धि से गिरने नहीं देती ।
अतः गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने देने के लिए इन षडावश्यकों का आचरण अत्यन्त उपयोगी है । क्योंकि जो आत्मा इनका नित्य सदाचरण करता है, वही विशुद्धता (मोक्ष) प्राप्त करता है ।' क्योंकि आत्मिक गुणों को प्रकट करने या आत्मिक विकास के लिए अवश्य करणीय क्रिया को ही " आवश्यक" कहा गया है । आवश्यक आत्मा की भावशुद्धि से गिरने नहीं देता । इसीलिए मन, वचन और काय से सर्वथा शुद्ध योग्य द्रव्य, क्षेत्र और काल में अव्याक्षिप्त (व्याकुलता रहित ) और मौन भाव से इनका पालन करना आवश्यक है ।
षड्- आवश्यकों की प्रायोगिक विधि
प्रस्तुत आवश्यक निर्युक्ति में सामायिक आदि जिन छह आवश्यकों का स्वरूप और उनकी विधि-विधान सूक्ष्मता और सरलता से प्रतिपादित किया गया है । परवर्ती श्रमणाचार परक अनेक शास्त्रों में भी मूलाचार के आधार पर ऐसा ही विवेचन है । तेरहवीं सदी के एक महान् विद्वान् अनेक शास्त्रों के प्रणेता पं. आशाधरजी ने अपने 'अनगार धर्मामृत' नामक श्रेष्ठ संस्कृत ग्रन्थ में इन
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मूलाचार ७१ / ८३ ।
जो उवजुंजदि णिच्चं सो सिद्धिं जादि विसुद्धप्पा । - मूलाचार ७/१९३
वही ७/१८९ ।
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