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आचार्य वट्टकेर प्रशस्ति
आयारस्स सारभूतो मूलायारो हि वाचगो । जयदु सिरि- वट्टकेरो बिबुहेहिं य पूजिदो । । १ ॥
अर्थ - प्रथम अंग - आगम आचारांग का सारभूत मूलाचार है, उसके वाचक, विद्वानों द्वारा प्रशंसित / पूजित आचार्यश्री वट्टकेर - स्वामी सदा जयवन्त रहें ।
कण्णाडगम्हि य पदेसय-दक्खिणम्हि वीयम्हि ईससदी जणएदि
अस्सि ।
ता गदे सुरवरे र णारि बंधू,
गामो वि सो जणवदो वि विसेस - पुज्जो ।। २॥ अर्थ - कर्नाटक प्रदेश के दक्षिण भाग में ईसा की द्वितीय आचार्य वट्टकेर के जन्म से प्रशंसित होती है, उस प्रान्त के नर-नारी, आनन्दित होते हैं और ग्राम - जनपदवासी खुशियाँ मनाते हैं ।
सो धारवाड - सुद- सुद- धारएदि,
णं अप्प अप्पजण सोहण सोहएदि । बालो गदो वि सुधार - धरंतमाणो,
सो दुक्खणस्स गरिमस्स महिमस्स सोहा ।। ३॥
दिक्खं दिअंबर - गुणाण सुमूल- मूलं,
धारेदि सो महरिसी णियभाव - भावे । आयारपूदरिसी - आइरियो सुभूसो,
अर्थ — वह धारवाड का सुत/ पुत्र श्रुत (आगमशास्त्र) की ओर प्रवृत्त होता
है । जैसे अपना आत्मीय जन / आत्मभाव की सिद्धि के लिए ही प्रयत्नशील होता
1
.। वह बाल्यावस्था से भी श्रुतधारा अर्थात् परम्परा को प्रवाहित करने का प्रयत्न करता है, उससे दक्षिण प्रदेश की गरिमा, महिमा और शोभा परिलक्षित होती है ।
शती इन
सभी
संयोजिदी चरणदंसण - णाण - मग्गे ।। ४ ।।
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बन्धु
अर्थ - दिगम्बर दीक्षा को धारण करके वे मूलगुणों में प्रवृत्त हुए । वे मूलसंघ के भी नायक बने । वे महाऋषि थे, इसीलिए उन्होंने अपने भावों को ही भावित किया, उसमें लीन हुए तथा आचार के पवित्र गुणों से आचार्यपद धारण किया और सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र ( रत्नत्रय) के मार्ग पर चलतेचलाते रहे ।
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