Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 259
________________ १९४ जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन हेतु अर्थात् इन उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए ।" इसीलिए श्रमण भी मोक्षमार्ग में स्थिर रहकर ईर्यापथ के अतिचारों का त्यागकर व्युत्सृष्ट त्यक्तदेह अर्थात् शरीर में मोह के त्यागपूर्वकं दुःखक्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं । यहाँ व्युत्सृष्टत्यक्तदेह से तात्पर्य जिसने विविध या विशिष्ट प्रकार से देह (शरीर) उत्सर्ग किया हो । ३ कायोत्सर्ग की विधि — कायोत्सर्ग - साधना के तीन तत्त्व - १. स्थान, २. मौन और ३. ध्यान । १. स्थान — स्थान से तात्पर्य कायोत्सर्ग में कायिक हलन चलन से रहित होकर एक ही स्थान पर स्थिर रहना । ऐसा कायोत्सर्ग स्थित (खड़े) होकर ", उपविष्ट अर्थात् बैठकर तथा शयनपूर्वक या लेटकर भी किया जा सकता I हेमचन्द्राचार्य ने भी पूर्वोक्त तीनों अवस्थाओं का वर्णन किया है । समाधिमरण के समय यावज्जीवन के लिये किया जाने वाला कायोत्सर्ग लेटकर भी किया जा सकता है। २. मौन - कायोत्सर्ग में मौन भी एक प्रमुख कार्य है । इसके अभाव में बाह्य प्रवृत्तियों से पूर्णतः विरत होना असम्भव है । अतः मौंन के द्वारा वाक् प्रवृत्ति का स्थिरीकरण होता है । ३. ध्यान — कायोत्सर्ग में चित्तवृत्ति को समेटकर एक ही विषय पर मन केन्द्रित करने के लिए ध्यान भी परमावश्यक है । वस्तुतः कायोत्सर्ग एक आध्यात्मिक उत्कर्ष की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । इसलिए विधि की दृष्टि से कायोत्सर्ग के पूर्वोक्त चार भेदों में श्रमण के लिए प्रथम उत्थित - उत्थित और तृतीय उपविष्ट - उत्थित — ये दो कायोत्सर्ग ही उपादेय हैं । इसकी विधि इस प्रकार है— सर्वप्रथम एकान्त एवं अबाधित स्थान में पूर्व तथा उत्तर दिशा अथवा जिन - प्रतिमा की ओर मुख करके आलोचनार्थ १. ३. ५. ६. मूलाचार ७/१५८ । उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति पत्र ३७१ । २. ४. Jain Education International वही ७/१६५ । मूलाचार ६/१५९ । वही ७ /१५८ । स च कायोत्सर्ग उच्छ्रितनिषण्णशयितभेदेन त्रिधा — योगशास्त्र तृतीय प्रकाश पृष्ठ २५० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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