Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 261
________________ जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन कामेच्छा, अर्थ- धनादि द्रव्य - इनके लिए कायोत्सर्ग करना तथा आज्ञा, निर्देश, प्रमाण (सभी मुझे प्रमाणस्वरूप समझें ), कीर्तिवर्णन, प्रभावना, गुणों का प्रका– इत्यादि प्रकार के सांसारिक वैभव प्राप्ति के भाव अप्रशस्तं मनः संकल्प होने से त्याज्य हैं । कायोत्सर्ग में ये विश्वास के सर्वथा अयोग्य होने से इनका चिन्तन त्याज्य है । " शन- कायोत्सर्ग का कालमान १९६ रात, दिन, पक्ष, चातुर्मास, संवत्सर (वर्ष) – इन कालों में होने वाले अतिचारों की निवृत्ति की दृष्टि से कायोत्सर्ग के बहुत भेद हैं । कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल-प्रमाण एक वर्ष और जघन्य प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । इन दोनों के बीच में दैवसिक, रात्रिक कायोत्सर्ग के अनेक भेद हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में शक्ति की अपेक्षा अनेकविध होते हैं । वे इस तरह हैं — दैवसिक प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का कालप्रमाण १०८ उच्छ्वास (३६ बार णमोकार मंत्र के जप बराबर ) है । विजयोदया टीका में इसे १०० उच्छ्वास प्रमाण माना है । रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ उच्छ्वास । विजयोदया टीका में रात्रिक के ५० उच्छ्वास माने हैं ।' पाक्षिक में ३०० उच्छ्वास, चातुर्मासिक में ४०० उच्छ्वास, सांवत्सरिक में १०८ उच्छ्वास, वीरभक्ति, सिद्ध-भक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति और चतुर्विंशति- तीर्थंकर - भक्ति में अप्रमत्तभाव उच्छ्वास-प्रमाण जप करना चाहिए । इस प्रकार दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक — इन पाँच स्थानों पर उपर्युक्त कायोत्सर्ग का प्रमाण है । अन्य स्थानों में कालमान इस तरह है— प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के अतिचार में किये जाने वाले कार्योत्सर्ग में १०८ उच्छ्वास जप किया जाता है । भक्त, पान (आहार) से आने पर, ग्रामान्तरगमन, अर्हन्त के निर्वाण, समवसरण, केवल - ज्ञान, दीक्षा, जन्म आदि से पवित्र तीर्थ-स्थानों की वन्दनादि करके लौटने पर तथा उच्चार- प्रस्रवण के बाद प्रत्येक १. २. ३. मूलाचार ७/१५९ । ४. मूलाचार ७/१८४-१८५ । भगवती आराधना विजयोदया टीका, गाथा ११६, पृ० २७८ । ५. ६. भगवती आराधना विजयोदया टीका गाथा ११६, पृ० २७८ । वही । मूलाचार ७/१६०-१६१ । Jain Education International ७. For Personal & Private Use Only वही ७ / १६२ । www.jainelibrary.org

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