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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रतिक्रमण के भेद-मूलाचारकार ने प्रतिक्रमण के मूलत: भावप्रतिक्रमण और द्रव्य-प्रतिक्रमण-ये दो भेद किये हैं ।
(१) भावप्रतिक्रमण-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और अप्रशस्तयोग-इन सबकी आलोचना (गुरु के सम्मुख अपने द्वारा किये अपराधों का निवेदन करना), निन्दा और गर्दा के द्वारा प्रतिक्रमण करके तथा दोष में पुन: प्रवृत्त न होने वाले को भावप्रतिक्रमण होता है, शेष को द्रव्य प्रतिक्रमण कहा जाता है ।२ भावयुक्त श्रमण ही जिन अतिचारों के नाशार्थ प्रतिक्रमण सूत्र बोलता-सुनता है, वह साधु विपुल निर्जरा करता हुआ, सभी दोषों का नाश करता है और वस्तुत: वचन-रचना मात्र को त्यागकर जो साधु संगादि भावों को दूर करके आत्मा को ध्याता है, उसी के (पारमार्थिक) प्रतिक्रमण होता है ।
(२) द्रव्य प्रतिक्रमण-उपर्युक्त विधि से जो अपने दोष परिहार नहीं करता और सूत्रमात्र से सुन लेता है, निन्दा, गर्हा से दूर रहता है तो उसका द्रव्य प्रतिक्रमण होता है । क्योंकि विशुद्ध परिणाम रहित होकर द्रव्यीभूत दोषयुक्त मन से जिन दोषों के नाशार्थ प्रतिक्रमण किया जाता है, वे दोष नष्ट नहीं होते । अत: उसे द्रव्य-प्रतिक्रमण कहते हैं ।६ द्रव्य सामायिक की तरह द्रव्य प्रतिक्रमण के भी आगम और नोआगम आदि भेद-प्रभेद माने जा सकते हैं । निक्षेप दृष्टि से प्रतिक्रमण के छह भेद - '
१. अयोग्य नामोच्चारण से निवृत्त होना अथवा प्रतिक्रमण दंडक के शब्दों का उच्चारण करना नाम प्रतिक्रमण है । २. सराग स्थापनाओं से अपने परिणामों को हटाना स्थापना प्रतिक्रमण है । ३. सावद्य द्रव्य सेवन के परिणामों को हटाना द्रव्य प्रतिक्रमण है । ४. क्षेत्र के आश्रय से होने वाले अतिचारों से निवृत्त होना क्षेत्र प्रतिक्रमण है । ५. काल के आश्रयं या निमित्त से होने वाले अतिचारों से निवृत्त होना काल प्रतिक्रमण है तथा ६. राग-द्वेष, क्रोधादि से उत्पन्न अतिचारों से निवृत्त होना भाव प्रतिक्रमण है ।
१. ३. ५. ६. ७.
मूलाचार ७/१२० ।
२. वही ७/१२६ । वही ७/१२८ ।
४. नियमसार ८३ । सेसं पुण दव्वत्तो भणिअं । मूलाचार ७/१२६ । वही ७/१२७ । मूलाचार ७/११५, वृत्तिसहित, भगवती आराधना वि०टी० ११६ । .. मूलाचार ७/११६ ।
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