Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 245
________________ १८० जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन ३. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण-जीवन पर्यन्त पानक जल आदि का भी त्याग । यह प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ (मोक्ष) के लिए होता है । उत्तमार्थ प्रतिक्रमण से तात्पर्य है बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रह, आहार और शरीर से ममत्व का जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना । मूलाचारवृत्ति में आचार्य वसुनन्दि ने आराधनाशास्त्र के आधार पर योग, इन्द्रिय, शरीर और कषाय-इन चार प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है । मन, वचन और काय-इन तीन योगों का त्याग योग-प्रतिक्रमण है । पंचेन्द्रियों के विषयों का त्याग इन्द्रिय-प्रतिक्रमण है । औदारिक वैक्रियक, आहारक, तैजस् और कार्माण-इन पाँच शरीरों से ममत्व त्याग (अथवा अपने शरीर को कृश करना) शरीर-प्रतिक्रमण एवं अनन्तानुबंधी आदि सोलह कषायों का एवं हास्य, रति आदि नौ नोकषायों का त्याग करना कषाय प्रतिक्रमण है ।। .. . उपर्युक्त तीन योगों के ही सम्बन्ध से अपराजितसूरि ने प्रतिक्रमण के तीन भेद किये हैं-१. किये हुए अतिचारों का मन से त्याग करना तथा हा ! मैंने पाप-कर्म किया-ऐसा मन में विचार करना मनःप्रतिक्रमण है । २. प्रतिक्रमण के सूत्रों का उच्चारण करना वाक्य-प्रतिक्रमण है तथा ३. शरीर के द्वारा दुष्कृत्य न करना काय-प्रतिक्रमण है ।। प्रतिक्रमण का उद्देश्य-आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-जो वचन रचना को छोड़कर, रागादिभावों का निवारण करके आत्मा को ध्याता है; उसे प्रतिक्रमण होता है । क्योंकि-प्रतिक्रमण व्रतों के अतिचारों को दूर करने का महत्त्वपूर्ण उपाय है । इसके द्वारा जीव स्वीकृत-व्रतों के छिद्रों को ढंक लेता है और शुद्धव्रतधारी होकर कर्मास्रवों का निरोध करता हुआ शुद्ध चारित्र का पालन करता हुआ और अष्टप्रवचन-माता के आराधन में सावधान रहता हुआ संयम रूप सन्मार्ग में एक-रस हो जाता है और सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण करता है। वस्तुत: सभी प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक होते हैं, तब उससे दोषशुद्धि होती १. ३. मलाचार वही, वृत्ति ३/१२० । २. मूलाचार ३/११४ । मूलाचार वृत्ति० ३/१२० । भगवती आराधना विजयोदया टीका गाथा ५०१ पृष्ठ ७२८ ।। मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा।। अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं । नियमसार ८३ उत्तराध्ययन २९/१२ । सर्व प्रतिक्रमणमालोचनापूर्वकमेव । -तत्त्वार्थकार्तिक ९/२२/४. ७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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