Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 249
________________ १८४ जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन अर्थात् अयोग्य द्रव्य का परिहार करना अथवा तप में बाधक योग्य द्रव्यों का भी त्याग करना प्रत्याख्यान है । मूलाचार के अनुसार नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन छह निक्षेपों के विषय में शुभ मन, वचन और काय के द्वारा अनागत' और वर्तमान काल के लिए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान उद्देश्य-वस्तुत: प्रत्याख्यान शब्द तत्त्व के द्वारा जानकर हेतुपूर्वक नियम करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । चाहे हम किसी वस्तु का भोग भले ही न करें, यदि प्रत्याख्यान नहीं किया हो तो वह त्याग फलदायक नहीं होता । क्योंकि हमने तत्त्वरूप से इच्छा का निरोध नहीं किया । प्रत्याख्यान रूप में नियम न करने से अपनी इच्छा खुली रहती है । यदि प्रत्याख्यान हो तो स्वाभाविक रूप से दोष के हेतुओं की ओर दृष्टि करने तक की इच्छा नहीं होती । इसके विपरीत प्रत्याख्यान न करने वाला पुरुष विवेकहीन होने के कारण सतत् कर्मबन्ध करता रहता है। उदाहरण-सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में इसके विषय में एक उदाहरण इस प्रकार उल्लिखित है कि किसी वध करने वाले (वधक) ने सोचा कि उस गृहस्थ अथवा गृहस्थपुत्र या राजा की हत्या करना है । पहले सो जाऊँ, फिर उठकर अवसर पाते ही उसकी हत्या करूँगा । इस प्रकार के संकल्प वाला वधक पुरुष चाहे सोया हुआ हो या जागा हुआ हो, चल रहा हो या बैठा होउसके मन में निरन्तर हत्या की भावना विद्यमान होने से वह तो किसी भी समय हत्या की भावना को कार्यरूप में परिणत कर सकता है । अपनी इस सावध मनोवृत्ति के कारण वह निरन्तर प्रतिक्षणं कर्मबन्ध करता रहता है । अत: साधक व्यक्ति को सावद्ययोग का प्रत्याख्यान अत्यावश्यक है । इससे जितने अंश में सावद्यवृत्ति का त्याग किया जाता है, उतने अंश में कर्मबन्धन रुक जाता है । इस दृष्टि से प्रत्याख्यान आवश्यक निरवद्यानुष्ठान रूप होने से आत्मशुद्धि के लिए साधक है । १. २. ३. मूलाचार वृत्ति १/२७ । अनागतं चानुपस्थितं च अथवा अनागते दूरेणागते काले (दूरे भविष्यतिकाले) -वही। णामादीणं छण्हं अजोगपरवज्जणं तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले । मूलाचार १/२७ सूत्रकृतांग द्वितीयश्रुतस्कन्ध चतुर्थाध्ययन दिट्ठत एवं उवणय पदं पृ० ४५१ । ४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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