Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 254
________________ आवश्यक नियुक्तिः प्रत्याख्यान की विधि - महाव्रतों के विनाश व दोषोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे, वैसा करता हूँ — ऐसी मन से आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों की शुद्धि के प्रतिग्रह का नाम प्रत्याख्यान है ।' श्वेताम्बर आवश्यकवृत्ति के अनुसार श्रद्धान, ज्ञान, वंदना, अनुपालन, अनुभाषण और भाव – इन छह शुद्धियों युक्त किया जाने वाला शुद्ध प्रत्याख्यान होता है । मूलाचार में विशुद्धिपूर्वक प्रत्याख्यान के पालन हेतु विनय, अनुभाषा, अनुपालन और परिणाम – इन चार प्रकार की शुद्धियों का विधान किया गया है । ३ स्थानांगसूत्र में इन्हीं शुद्धियों में श्रद्धा को सम्मिलित करके प्रत्याख्यान के पूर्वोक्त पाँच भेद उल्लिखित हैं । १. विनयशुद्धि का अर्थ कृतिकर्म, औपचयिक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र – इन पाँच प्रकार की विनय से युक्त प्रत्याख्यान किया है । २. अनुभाषा शुद्धि से तात्पर्य गुरु वचनों के अनुसार अक्षर, पद, व्यंजन, घोष, स्वर आदि के उच्चारण का शुद्धिपूर्वक प्रत्याख्यान करना है । ३. अनुपालन शुद्धि - अर्थात् आतंक, उपसर्ग, श्रम, दुर्भिक्ष, वृत्ति तथा महारण्यादि में आपत्ति के समय अपने व्रतों आदि की विशुद्धता बनाए रखना । ४. परिणामशुद्धि – अर्थात् राग-द्वेष रूप मन के परिणामों से रहित, पवित्र भावना से प्रत्याख्यान करना । ५ उपर्युक्त चार शुद्धियों से किये गये प्रत्याख्यान के द्वारा आत्मा को मन, वचन और काय की दुष्प्रवृत्तियों से रोककर शुभ प्रवृत्तियों में केन्द्रित किया जा सकता है । इससे अमर्यादित जीवन मर्यादित करने में सहायता मिलती है तथा जीवन में त्याग की निरन्तरता को बनाये रखा जा सकता है । इस प्रकार प्रत्याख्यान आवश्यक के द्वारा श्रमण स्वयं को व्यर्थ के भोगों से बचाते हैं और आत्मचिन्तन में तत्पर रखते हैं । इसके करने से आस्रव का निरोध होता है । उससे संवर तथा संवर से तृष्णा का नाश होकर समत्व की प्राप्ति होती है और क्रमशः मुक्ति प्राप्त करता है । ६. कायोत्सर्ग आवश्यक : स्वरूप – मूलाचारकार ने कायोत्सर्ग के लिए विसर्ग तथा व्युत्सर्ग शब्दों का भी प्रयोग किया है । दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और 1 १. धवला ८/३/४१ / ८५/१ । ३. मूलाचार ७/१४२, स्थानांग ५ / ३ / ४६५ । मूलाचार ७/१४३-१४६ । ५.. ६-७. वही, १/२२ तथा ७/१८१ । Jain Education International १८९ २. ४. For Personal & Private Use Only आवश्यक वृत्ति पृ० ८४७ । स्थानांग ५ / २११ । www.jainelibrary.org

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