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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
सांवत्सरिक आदि अर्हत्प्रणीत कालप्रमाण के अनुसार अर्थात् जिस-जिस काल में जितना-जितना कायोत्सर्ग जिनेन्द्रदेव ने आगमों में कहा गया है, उस काल का अतिक्रमण किये बिना यथोक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान् का चिन्तन करते. हुए शरीर से ममत्व त्याग विसर्ग या कायोत्सर्ग (विसग्ग या काउसग्ग) कहलाता है ।
काय+उत्सर्ग-इन दो शब्दों के योग से कायोत्सर्ग शब्द बना है । जिसका । अर्थ है काय का त्याग अर्थात् परिमिति काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग । काय आदि परद्रव्यों के प्रति स्थिर भाव छोड़कर निर्विकल्प रूप से आत्मध्यान करना कायोत्सर्ग है । इसे व्युत्सर्ग भी कहते हैं । नि:संगता-अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही व्युत्सर्ग है ।
• उद्देश्य-आत्मसाधना के लिए अपने आपको उत्सर्ग की विधि ही व्युत्सर्ग है । इसकी साधना से श्रमण अपने देह के प्रति ममत्व भाव का पूर्णत: विसर्जन करने की स्थिति में पहुँच जाता है, क्योंकि शरीर अन्य है, जीव-आत्मा अन्य है-इस प्रकार के भेद-विज्ञान का चिन्तन आत्म-साधना में आवश्यक है । इससे चित्त की एकाग्रता उत्पन्न होती है और आत्मा को अपने स्व-स्व चिन्तन का अवसर मिलता है ।
इस प्रकार आत्मा निर्भय बनकर अपने कठिनतम (कुछ समय के लिए देहोत्सर्ग अर्थात् देह-भाव के विसर्जन) से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का विशोधन करता है और ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भार-वाहक की भाँति निर्वृतहृदय (शान्त या हल्का) हो जाता है और प्रशस्तध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है ।
कायोत्सर्ग के भेद-निक्षेप दृष्टि से कायोत्सर्ग के छह भेद हैं
१. नाम–'कायोत्सर्ग' ऐसे इस नाम को नाम-कायोत्सर्ग कहते हैं । अथवा तीक्ष्ण, कठोर आदि रूप पापयुक्त नामकरण में हुए दोषों के परिहारार्थ जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह नाम कायोत्सर्ग है ।
१. देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुविसग्गो । मूलाचार १/२८ २. तत्त्वार्थवार्तिक ६/२४/११, पृ० ५३० ।
नियमसार १२१ । ४. नि:संङ्गनिर्भयत्वजीविताशा व्युदासाद्यों व्युत्सर्गः । तत्त्वार्थवार्तिक ९/२६/१० ५. अन्नं इमं सरीरं अन्नोजीवुत्ति कयबुद्धि-आवश्यकनियुक्ति दीपिका १५४७ ६. उत्तराध्ययन २९/१३ ।।
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