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आवश्यकनियुक्तिः
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प्रतिक्रमण-विधि
सर्वप्रथम विनयकर्म करके, शरीर, आसन आदि का पिच्छिका से प्रमार्जन व नेत्र से देखभाल कर शुद्धि करे । इसके बाद अंजुलि छोड़कर ऋद्धि आदि गौरव तथा जाति आदि सभी तरह के मान छोड़कर व्रतों में हुए अतिचारों को गुरु के समक्ष निवेदन करना चाहिए । आचार्य के समक्ष अपराधों का निवेदन नित्यप्रति करना चाहिए ।
आज नहीं, दूसरे या तीसरे दिन आचार्य के समक्ष अपराध कहूँगाइत्यादि रूप में टालते हुए कालक्षेप करना ठीक नहीं । अतः जैसे-जैसे माया के रूप में अतिचार उत्पन्न हो; उन्हें अनुक्रम से आलोचना, निन्दा और गर्हापूर्वक विनष्ट करके पुन: उन अपराधों को नहीं करना चाहिए और जब पापकर्म करने पर प्रतिक्रमण करना पड़े, तब इससे अच्छा तो यही है कि वह पापकर्म ही न किया जाय । ___धर्मकथा आदि में विघ्न का कोई कारण उपस्थित होने पर यदि कोई मुनि अपने स्थिर योगों को भूल जाय तब सर्वप्रथम आलोचना करके संवेग और वैराग्य में तत्पर रहना ही योग्य है । ___ छोटे अपराध के समय यदि गुरु समीप न हों तब वैसी अवस्था में—'मैं फिर ऐसा कभी न करूँगा, मेरा पाप मिथ्या हो'-इस प्रकार प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण करते हैं, उसी तरह असंयम, क्रोधादि कषायों एवं अशुभ योगों का प्रतिक्रमण करना चाहिए । . . . इस तरह दैवसिक, रात्रिक आदि इन सब नियमों को पूर्णकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान करना चाहिए । आलोचनाभक्ति करते समय कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमणभक्ति करने में कायोत्सर्ग, वीरभक्ति में कायोत्सर्ग और चतुर्विंशति तीर्थंकरभक्ति में कायोत्सर्ग-इस तरह प्रतिक्रमण काल में ये चार कृतिकर्म करने का विधान है।
१. मूलाचार ७/१२१ ।
मूलाचार ७/१२५ । अर्ध० आवश्यक नियुक्ति भाग १, गाथा ६८४ । चारित्रसार १४१/४ ।
मूलाचार ७/१२० । ६. . वही ७/१६८ । ७. वही ७/१०३ ।
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