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जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
जो ध्यानादि में एकाग्रचित्त है, कृतिकर्म करने वाले की ओर पीठ किए बैठा है । प्रमत्त, निन्दित अवस्था अथवा विकथा आदि तथा आहार, नीहार आदि क्रियाओं में संलग्न है, ऐसे संयमी मुनि की भी वन्दना नहीं करना चाहिए । इन सबके साथ अवसर विशेष का भी ध्यान रखना चाहिए । यथा आलोचना, सामायिकादि षडावश्यक करने तथा प्रश्न पूछने के पूर्व एवं पूजन, स्वाध्याय के समय और क्रोधादि अपराध हो जाने पर आचार्य, उपाध्यायादि गुरुओं की वंदना करनी चाहिए ।
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(५) कृतिकर्म कितने बार करे ? – पूर्वाह्न और अपराह्न – इन दोनों कालों के सात-सात अर्थात् कुल चौदह कृतिकर्म करना चाहिए । सात कृतिकर्म ये हैं - १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. वीर, ४. चतुर्विंशति तीर्थंकर – ये चार भक्ति प्रतिक्रमण काल के कृतिकर्म हैं तथा ५. श्रुतभक्ति, ६: आचार्य भक्ति तथा ७. स्वाध्याय उपसंहार — ये तीन स्वाध्याय काल के कृतिकर्म हैं ।
अनगार धर्मामृत में यही विभाजन विशेष स्पष्टीकरण के साथ इस तरह
समय
१ - सूर्योदय से लेकर दो घड़ी तक २ - सूर्योदय के दो घड़ी पश्चात से मध्याह्न की दो घड़ी पहले तक ३—मध्याह्न के दो घड़ी पूर्व से दो घड़ी पश्चात् तक
४ - आहार से लौटने पर ५ – मध्याह्न के दो घड़ी पश्चात् से सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व तक
६ - सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व से सूर्यास्त तक
७ - सूर्यास्त से लेकर उसके दो घड़ी पश्चात् तक
१.
३.
४.
मूलाचार ७/१०० ।
मूलाचार ७/१०३ ।
अनगार धर्मामृत ९.१ - १३,
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क्रिया
――
- देववंदन, आचार्यवंदन तथा नमन - पूर्वाह्निक स्वाध्याय
-
- आहारचर्या (यदि उपवास युक्त है तो क्रम से आचार्य, देव-वंदन व मनन)
२.
- मंगलगोचर. प्रत्याख्यान
- अपराह्निक स्वाध्याय
- दैवसिक प्रतिक्रमण व रात्रियोग
धारण
आचार्य देव वन्दन तथा मनन
३४-३५ उद्धृत
मूलाचार ७ / १०२ ।
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० १३७ ।
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