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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है अत: इसे विनयकर्म भी कहते हैं । यहाँ कृतिकर्म और विनयकर्म का क्रमशः विशेष विवेचन प्रस्तुत है
१. कृतिकर्म का स्वरूप-कृतिकर्म पापों के विनाश का उपाय है । सामायिक-स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतिस्तव पर्यन्त की जाने वाली विधि को कृतिकर्म कहते हैं । ग्रन्थकार ने कृतिकर्म को क्रियाकर्म भी कहा है । जयधवला के अनुसार जिनदेव, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय की वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं आचार्य वसुनन्दि ने कहा है–सामायिक-स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशति-तीर्थंकर-स्तव पर्यन्त जो विधि है, उसे कृतिकर्म कहते हैं ।
कृतिकर्म की प्रयोग-विधि-यथाजात (नग्न) मुद्रा-धारी. साधु मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति सहित कृतिकर्म करें । इसकी नौ अधिकार पूर्वक विधि बतलाई है
कृतिकर्म के नौ अधिकार-कृतिकर्म के नौ अधिकारों (द्वारों) से विचार किया गया है—(१) कृतिकर्म कौन करे ? (२) किसका करे ? (३) किस विधि से करे ? (४) किस अवस्था में करे ? (५) कितनी बार करे ? (६) कितनी अवनतियों से करे अर्थात् कृतिकर्म करते समय कितने बार झुकना चाहिए ? (७) कितने बार मस्तक पर हाथ रखकर करे ? (८) कितने आवों से शुद्ध होता है ? (९) वह कृतिकर्म कितने दोष रहित करे ? .
इन नव अधिकार रूप नव प्रश्नों का समाधान इस तरह है
(१) कृतिकर्म कौन करे ? (स्वामित्व)-पंचमहाव्रतों के आचरण में लीन, धर्म में उत्साहित, उद्यमी, मान-कषाय से रहित, निर्जरा का इच्छुक और दीक्षा में लघु-ऐसा संयमी श्रमण कृतिकर्म करता है ।
१. कृतिकर्म पापविनाशनोपाय: मूलाचार वृत्ति ७/७९ । २. जिण-सिद्धाइरिय-बहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदिकम्मं णाम ।
-जयधवला १/१/९१, पृ० १०७ ३. सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुर्विंशतितीर्थंकरस्तवपर्यन्त: कृतिकर्मेत्युच्यते
-मूलाचारवृत्ति ७/१०३ दोणदं तु जधाजादं वारसावत्तमेव य ।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजदे ।। मूलाचार ७/१०४ ५. कदि ओणदं कदि सिरं कदि आवत्तगेहिं परिसुद्धं ।
कदिदोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं ।। मूलाचार ७/८० मूलाचार ७/९३ ।
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