Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 228
________________ आवश्यकनिर्युक्तिः ४ – जिस क्षेत्र में इन्होंने - की तरह द्रव्य वन्दना के भी भेद समझना चाहिए । निवास किया हो उसकी वन्दना करना क्षेत्र वन्दना है । ५ – जिस काल में ये रहे हों उस काल की वन्दना करना काल वन्दना है तथा ६ - शुद्ध परिणामों से उनके गुणों का स्तवन एवं वन्दना करना भाव वन्दना है । वन्दना का समय और अवसर — आलोचना, प्रश्न, पूजा, स्वाध्याय आदि के समय तथा क्रोध आदि अपराध हो जाने पर आचार्य, उपाध्याय आदि की वन्दना की जाती है ।' पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न – इन तीन सन्ध्याकालों में वन्दना का समय छह-छह घड़ी है । अर्थात् सूर्योदय के तीन घड़ी पूर्व से तीन घड़ी पश्चात् तक पूर्वाह्न वन्दना । मध्याह्न के तीन घड़ी पूर्व से तीन घड़ी पश्चात् तक मध्याह्न वन्दना । सूर्यास्त के तीन घड़ी पूर्व से तीन घड़ी पश्चात् तक अपराह्न वन्दना होती है । जब आचार्य आदि एकान्तभूमि में पद्यासनादि से स्वस्थचित्त बैठे हों तब उनकी विज्ञप्ति (आज्ञादि) लेकर वन्दना करनी चाहिए । व्याकुलचित्त, निद्रा, विकथा आदि प्रमत्तावस्था तथा आहार-णीहार में युक्त या मल-मूत्रादि उत्सर्ग के समय आचार्यादि की वन्दना नहीं करनी चाहिए ।४ वन्दना के पर्यायवाची अन्य नाम – कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म – ये वन्दना के चार नामान्तर हैं । वन्दना के ही अन्य नाम होने से इन्हें नाम वन्दना भी कह सकते हैं । १. कृतिकर्म - जिससे पूर्वकृत अष्टकर्मों का नाश हो । २. चितिकर्म - जिससे तीर्थंकरत्वादि पुण्यकर्म का संचय होता है । ३. पूजाकर्म - जिससे पूजा की जाये अर्थात् अर्हदादि का बहुवचन युक्त शब्दोच्चारण एवं चंदनादि अर्पण करना । तथा ४. विनयकर्म - जिससे सेवा सुश्रुषा की जावे । १६३ इस प्रकार जिस अक्षरोच्चारणरूप वाचनिक क्रिया, परिणामों की विशुद्धिरूप मानसिक क्रिया और नमस्कार आदि रूप कायिक क्रिया करने से ज्ञानावरणादि अष्टविधकर्मों का 'कृत्यते छिद्यते' छेद होता है उसे कृतिकर्म कहा जाता है । यह पुण्यसंचय का कारण है, अतः इसे चितिकर्म भी कहते हैं । इसमें चतुर्विंशति तीर्थंकरों और पञ्चपरमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) आदि की पूजा की जाती है, अतः इसे पूजाकर्म भी कहते हैं । १. ३. वही ७/ १०२ । २. मूलाचार ७ / १०१ । ४. किदियम्मं चिदियम्मं पूजाकम्मं च विणयकम्मं च — मूलाचार ७/७९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only अनगार धर्मामृत ८/७९ । वही ७ /१०० । www.jainelibrary.org

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