Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 235
________________ १७० जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन करना । २८. हीन-ग्रन्थ, अर्थ, कालादि प्रमाण रहित वन्दना करना । २९. उत्तर चूलिका-वन्दना को थोड़े समय से पूर्ण करना तथा उसकी चूलिका सम्बन्धी आलोचना आदि को अधिक समय तक सम्पन्न करके वन्दना करना । ३०. मूक-मूक (गूंगे) व्यक्ति की तरह मुख के भीतर ही भीतर वन्दना पाठ बोलना अथवा वन्दना करते हुए हुँकार, अंगुलि आदि की संज्ञा (चेष्टा) करना । ३१. दर्दुर-अपने शब्दों के द्वारा दूसरों के शब्दों को दबाने के उद्देश्य से तेज गले के द्वारा महाकलकल युक्त शब्द करके वन्दना करना । ३२. चुलुलित (चुरुलित)-एक ही स्थान में खड़े होकर, हाथों की अंजुलि को घुमाकर सबकी वन्दना करना अथवा चुरुलित पाठ के अनुसार पंचमादि स्वर से (गाकर) वन्दना करना ।। वन्दना के ये बत्तीस दोष हैं । इन दोषों से परिशुद्ध होकर जो कृतिकर्म करता है वह साधु विपुल निर्जरा का भागी होता है । तथा यदि इन दोषों में से किसी भी एक दोष सहित कृतिकर्म करता है या इन दोषों के निवारण के बिना वन्दना करता है तो वन्दना से होनेवाली कर्म निर्जरा का वह श्रमण कभी स्वामी नहीं बन सकता ।२.. २. विनयकर्म स्वरूप एवं उद्देश्य-वन्दना का मूल उद्देश्य जीवन में विनय को उच्च स्थान देना है । जिन-शासन का मूल तथा समग्र संघ-व्यवस्था का आधार विनय ही है । इसीलिए वन्दना के चार पर्यायवाची नामों में विनय स्वीकृत किया है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मों का विनाश, चतुर्गति भ्रमण से मुक्ति तथा संसार से विलीन करने वाली विनय है । श्रमण को स्वर्ग-मोक्षादि की ओर ले जाने वाला विशिष्ट शुभ परिणाम भी विनय ही है ।" इसीलिए सभी जिनवरों ने मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हेतु सम्पूर्ण कर्मभूमियों के लिए विनय का प्ररूपण किया १. मूलाचार वृत्ति सहित ७/१०६-११० । वही ७/११० । वही ७/१११ । मूलाचार ७/७७ । स्वर्गमोक्षादीन् विशेषेण नयतीति विनय:-मूलाचार वृत्ति ५/१७५ । मूलाचार ७/८२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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