________________
जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
करना द्वितीय चतुर्विंशति - स्तव (थवो ) आवश्यक है ।' जिनवरों की भक्ति से जीव पूर्व संचित कर्मों का क्षय और सम्यक्त्व की विशुद्धि कर लेता है । अर्हत्परमेष्ठी वंदना - नमस्कार, पूजा-सत्कार तथा सिद्धिगमन के योग्य पात्र होने से उन्हें अर्हन्त कहते हैं । इस तरह लोक को ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित करने वाले चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव है ।
१६०
स्तव के भेद - मूलाचार के अनुसार निक्षेप दृष्टि से स्तव के छह भेद हैं । " जयधवला में इसके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव – ये चार भेद किये गये हैं । अपराजितसूरि ने मन, वचन और काय — इन तीन योगों के सम्बन्ध से स्तव के तीन भेद किये हैं । ७ १. मन से चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करना मनस्तव है । २. वचन से 'लोगुज्जोययरे' – इत्यादि गाथा' में कही गयी तीर्थंकरों की स्तुति बोलना वचनकृत स्तव है । ३. ललाट पर हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करना कायकृतस्तव है ।
-
निक्षेप दृष्टि से स्तव के छह भेद' -
१. नाम — चौबीस तीर्थंकरों के गुणों के अनुसार उनके १००८ नामों का उच्चारण करना नामस्तव है ।
२. स्थापना — तीर्थंकरों के गुणों की धारक तद्रूप स्थापित जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुति करना स्थापना स्तव है ।
३. द्रव्य — परमौदारिक शरीर के धारक तीर्थंकरों का वर्ण, उनके शरीर की ऊँचाई, उनके माता-पिता आदि का वर्णन द्रव्यस्तव है ।
४. क्षेत्र - तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण-इन पाँच कल्याणकों द्वारा पवित्र नगर, वन, पर्वत आदि क्षेत्रों का वर्णन करना क्षेत्रस्तव है ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
ॐ ॐ
७.
८.
भत्तीइ जिणवराणं खिज्जंति पुव्वसंचिया कम्मा ।
—वही ७/७२, अर्ध० आवश्यक नियुक्ति ११०४
चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ – उत्तराध्ययन ३१/९, चतुः शरण सूत्र ३.
मूलाचार ७/६५ ।
आवश्यक सूत्र २ / १ ।
मूलाचार ७/४१ ।
कसाय पाहुड जयधवला - १/८५ पृ० ११९ ।
भगवती आराधना विजयोदया टीका ५०९, पृष्ठ ७२८ ।
मूलाचार ७/४२ ।
९.
Jain Education International
मूलाचार सवृत्ति ७/४१ |
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org