Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 224
________________ आवश्यकनियुक्तिः १५९ सामायिक चारित्र है । इसे स्वीकार करते समय सर्वसावध का त्याग किया जाता है, सावद्ययोग का विभागश: त्याग नहीं किया जाता । इसमें पाँच महाव्रत आदि रूप से भेद की विवक्षा नहीं होती । अपितु इसकी स्वीकृति से सर्व सावद्य (सदोषहिंसादि) प्रवृत्ति का पूर्णत: त्याग हो जाता है । प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के अतिरिक्त मध्य के बाईस तीर्थंकरों ने इसी का ही उपदेश किया । छेदोपस्थापना चारित्र में विभागश: त्याग किया जाता है । हिंसादि पाँच सावधों का पृथक्-पृथक् त्याग किया जाता है । निरवद्य क्रियाओं में प्रमादवश दोष लगने पर उसका सम्यक् प्रतिकार करना छेदोपस्थापना है । आचार्य वीरनन्दि ने कहा है-पाँच महाव्रत, पाँच समिति और त्रिगुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र में भेद अथवा दोष लगने पर उन दोषों का छेद (नाश) करना और फिर अपने आत्मस्वरूप चारित्र को अपने आत्मा में ही स्थिर रखना छेदोपस्थापना है । आचार्य पूज्यपाद ने कहा है-इन तेरह भेद वाले चारित्र का निरूपण भगवान् महावीर ने किया था । पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने ऐसे विभागात्मक चारित्र का निरूपण नहीं किया । आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों द्वारा छेदोपस्थापना चारित्र (संयम) के प्रतिपादन का कारण बताते हुए लिखा है किकथन (परोपदेश) करने में पृथक्-पृथक् भावित करने में और समझने में सुगमता हो इसीलिए पाँच महाव्रतों का वर्णन किया । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के तीर्थ में शिष्य मुश्किल से शुद्ध किये जाते थे । क्योंकि वे अतिशय सरल स्वभाव होते थे । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के तीर्थ में शिष्यजनों से व्रतों का पालन कराना कठिन रहा है । क्योंकि वे अधिक वक्र स्वभाव के थे । साथ ही दोनों तीर्थों के शिष्य स्पष्ट रूप से योग्य-अयोग्य को नहीं जानते थे । इसीलिए आदि (प्रथम) और अन्त के तीर्थंकरों ने अपने तीर्थ में छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है । २. स्तव-(चतुर्विंशति-स्तव) आवश्यक स्वरूप-तीर्थंकर ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों के नाम निरुक्ति के अनुसार अर्थ करके उनके असाधारण गुणों का कीर्तन-अर्थात् गुणग्रहण पूर्वक नाम लेकर तथा पूजनकर, मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक नमन १. आचारसार ५/६-७ । चारित्रभक्ति ७। मूलाचार ७/३६, ३७, ३८ । ४. , उसहादि जिणवराणं णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च । काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धिपरिणामो थवो णेओ ।।-मूलाचार १/२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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